शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

जब सोने में जंग लगेगी तो लोहा क्‍या करेगा- तीसरी किश्‍त

सुधि साथियों की स्‍मृति में होगा कि हमने तीन साल पहले मध्‍य प्रदेश के संस्‍कृति विभाग और संबंधित संस्‍थाओं यथा भारत भवन, मध्‍य प्रदेश साहित्‍य परिषद्, सृजनपीठों आदि में दोयम दर्जे की पदस्‍थापनाओं और उनके हीनतर होते जाने, उनके भगवाकरण को लेकर दो वक्‍तव्‍य जारी किए थे। लेखकों से आव्‍हान भी किया था कि वे इन संस्‍थाओं में जाने के पहले विचार करें। हमने तो करीब 10 वर्ष से बहिष्‍कार कर ही रखा है।
अनेक वरिष्‍ठ और युवतर लेखकों ने उन वक्‍तव्‍यों के साथ अपनी सहमति, समर्थन और स्‍वविवेक से अपना खुद का निर्णय लेते हुए पिछले वर्षों में मप्र संस्‍कृति विभाग के आयोजनों से अपनी दूरी बनाई है। प्रगतिशील लेखक संघ ने भी राज्‍य और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर लंबे विमर्श के बाद पिछले दिनों अपने स्‍तर पर मप्र संस्‍कृति विभाग के आयोजनों का बहिष्‍कार का निर्णय लिया है।
हालॉंकि अनेक लेखक ऐसे भी हैं जो इनमें सहज ही उपस्थित होते रहे हैं।
बहरहाल, उसी श्रंखला में आज यह एक वक्‍तव्‍य और जारी किया है।
इसमें हम अनेक लेखक साथियों की सहमति मानकर चल रहे हैं, खासकर उनकी तो जरूर ही, जिनसे इस मुद्दे पर लगातार सकारात्‍मक बात चलती रही है और जो इस अभियान में प्रत्‍यक्ष एवं परोक्ष रूप से शामिल हैं। फिर भी कोई यदि अपना नाम जोड़कर या इसी रूप में इसे आगे प्रसारित, प्रकाशित, अपनी वॉल पर शेयर करना चाहे तो स्‍वागतेय होगा। यह वक्‍तव्‍य यहॉं संलग्‍न है।

''और अब यह तीसरा वक्तव्‍य'' 
10 जुलाई 2015


                                                              प्रिय लेखको,
           लेकिन उस दिन तुम्हारे पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं होगा


पुणे के फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के छात्र पिछले कई हफ्तों से संस्थान में नियुक्त किये गये नये अध्यक्ष गजेन्द्र सिंह चौहान की नियुक्ति के विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं। प्रतिरोध की इस कार्रवाई ने सारे देश के फिल्म और टेलीविज़न से जुड़े कलाकारों को उद्वेलित कर दिया है।लगभग सभी छोटे-बड़े शहरों में फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान के छात्रों के पक्ष में आंदोलन हुए हैं, हो रहे हैं। हम इस आंदोलन के साथ हैं। उन जाँबाज़ छात्रों के साथ हम अपनी एकजुटता का इज़हार करते हैं। यह बड़ी बात है कि इस संस्थान के छात्र अपने कैरियर को दाव पर लगाकर केन्द्र सरकार के द्वारा अयोग्य व्यक्ति की नियुक्ति के विरूद्ध लगातार आंदोलन कर रहे हैं। क्या हिन्दी के लेखक इस आंदोलन से कोई सबक सीखेंगे?  हिन्दी के रचनाकार जो  प्रतिरोध और पक्षधरता के सम्बंध में लगातार गाल बजाते रहे हैं , वे क्या इस आंदोलन से कोई सबक हासिल करेंगे? या आज भी वे भाजपा शासित राज्यों में, जो हर चीज का भगवाकरण करती जा रही है, उनके सरकारी जलसों में शामिल होने के पक्ष में तर्क-कुतर्क करते रहेंगे?

इस बीच केन्द्र की भाजपा सरकार ने ऐसी अनेक नियुक्तियॉं की हैं जिनका सम्बंध संस्कृति और साहित्य से है, लेकिन हमारे रचनाकारों ने किसी भी नियुक्ति के विरूद्ध कोई आंदोलन तो दूर कोई बयान तक देने की ज़हमत नहीं उठाई है। जो इस तर्क के साथ सरकारी कार्यक्रमों में शामिल होते रहे कि हम मंच पर जाकर अपनी बात कहेंगे, उनसे पूछा जा सकता है कि उन्होंने मंच से मध्यप्रदेश की अकादेमियों और सृजनपीठों पर होने वाली नियुक्तियों के विरूद्ध क्या कहा और कब कहा? अकादेमी की पत्रिकाओं को कूड़े का पीपा बनाया जाता रहा और आपने मंच से क्या कहा? सारा प्रतिरोध क्या सिर्फ कहानी-कविता के शब्दों तक सीमित हो गया है? क्या आज के ये लेखक सिर्फ काग़ज़ के भोंपू हैं? पुणे फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान में महाभारत सीरियल के एक साधारण से अभिनेता गजेन्द्र सिंह चौहान की नियुक्ति से पूर्व बाल फिल्म सोसायटी में मुकेश खन्ना की नियुक्ति, फिल्म सेन्सर बोर्ड में प्रहलाज निहलानी की नियुक्ति हो चुकी है। नेशनल बुक ट्रस्ट में संघ प्रचारक और संघ के पत्र पॉंचजन्य के पूर्व संपादक बलदेव भाई शर्मा की नियुक्ति हो चुकी है। राष्ट्रीय संग्रहालय से उसके महानिदेशक वेणु वासुदेवन को कार्यकाल पूरा होने से पूर्व हटाया जा चुका है। ए. रामानुजम की महत्वपूर्ण किताब  'थ्री हंड्रेड रामायणाज़' की पढ़ाई दिल्ली विश्व विद्यालय में बंद करवाई जा चुकी है। प्रतिष्ठित संस्था 'भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद' जिसमें कभी निहार रंजन रे, रामशरण शर्मा, इरफ़ान हबीब और सब्यसाची भट्टाचार्य जैसे इतिहासकार अध्यक्ष रह चुके हैं, अब संघ परिवार के वाय़ सुदर्शन राव को अध्यक्ष बनाया गया है। इस सरकार के विरोध करने और इसकी सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों का बहिष्कार करने के लिये  हिन्दी के रचनाकारों को कितनी और घटनाओं की आवश्यकता है?
इस समय हमें पास्टर निमौले की वह प्रसिद्ध कविता याद आ रही है -
पहले वे यहूदियों के लिये आये
और मैं चुप रहा
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।
फिर वो कम्युनिस्टों के लिये आये
और तब भी मैं चुप रहा
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर आये वे ट्रेड यूनियन वालों के लिये
और मैं चुप रहा
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था

फिर वो आये मेरे लिये
और तब कोई नहीं बचा था
मेरे पक्ष में बोलने के लिये।

हिन्दी के अनेक रचनाकार इन सारी स्थितियों को चुपचाप, प्रतिक्रियाविहीन देख रहे हैं। मध्यप्रदेश में विगत बारह वर्ष से भाजपा की सरकार है और उसने संस्कृति विभाग की परिषदों से निकलने वाली तमाम पत्रिकाओं को नष्ट कर दिया है। परिषदों में, सृजनपीठों में, भारत भवन के न्यास में एक से एक अयोग्य लोग निदेशकों, सदस्यों के पदों पर आसीन हो रहे हैं लेकिन हिन्दी के रचनाकारों को संस्कृति विभाग के कार्यक्रमों से कोई एतराज़ नहीं। ऐसा लगता है कि प्रतिरोध की सारी आवाज़ें और शब्द उनके कण्ठ में सूख चुके हैं। वे लगातार सरकार के समर्थन में तर्क जुटा रहे हैं।
आज जब मध्यप्रदेश सरकार शिक्षा और नियुक्ति के संदर्भ में 'गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड' में दर्ज किये जा सकनेवाले व्यापम के महाघोटाले में घिरी है, जब वह संस्कृति और शिक्षा मंत्री, जिसके बुलावे पर लेखक आते रहे, विगत डेढ़ साल से भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है और जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार इस घोटाले में घिरी हुई है तब भी पक्षधर कहे जानेवाले लेखकों को मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के बुलावों पर आने में कोई एतराज़ नहीं। मुक्तिबोध, निराला, परसाई जैसे लेखकों के नाम पर किये जाने वाले आयोजनों में इन सर्जकों के रचनाकर्म, विचारधारा और महत्व  से सर्वथा अपरिचित लोग बुलाए जाते हैं, यह उनका अपमान है, उनका मजाक है। इनमें शामिल होनेवाले इक्का-दुक्‍का समझदार लेखकों से पूछा जाना चाहिये कि आखिर कब बोलोगे? कब मुँह खोलोगे ?  कब इस भ्रष्ट, साम्प्रदायिक फासीवादी सरकार के बुलावे का बॉयकाट करोगे? आखिर कब....? ? 

                          राजेश जोशी             कुमार अंबुज          और तमाम मित्र लेखकगण।

रविवार, 1 मार्च 2015

मेरे शब्दकोष में मुआफ़ी की भीख माँगने वाले शब्द नहीं

एक कविता अविजित रॉय की जीवन साथी रफीदा अहमद बान्ना के लिए
(ये कविता काफिला ने वेब पर प्रकाशित की थी।  तीस्ता के ज़रिये मोडेरेट्स ग्रुप पर मुझ तक पहुंची और मैंने साथी नूर ज़हीर की मदद लेकर इसका तर्जुमा हिंदी में  कर दिया। कॉमरेड पानसरे को तथाकथित हिन्दू धर्मांधों ने मारा और अविजित रॉय को अपने आपको मुसलमान कहने वाले फिरकापरस्तों ने। इस कविता के ज़रिये हम सब बान्ना के दुःख के साथ शामिल हो सकेंगे।-विनीत तिवारी)

बहन बान्ना, सुनो ज़रा।

- इरफानुर रहमान रफीन
(बांग्ला से अंग्रेज़ी तर्जुमा की हुई कविता का हिंदी तर्जुमा - विनीत तिवारी)

मेरे शब्दकोष में मुआफ़ी की भीख माँगने वाले शब्द नहीं,
लेकिन फिर भी कुछ तो ज़रूरी है कहना
इसलिए मैं तुम्हारे कानों में फुसफुसाता हूँ मेरी बहन बान्ना,
कि पारुल के पास अभी भी सात भाई सलामत हैं
मैं जानता  हूँ कि कुछ इसे कुफ्र कहेंगे
मैं कहूँगा कि वो मेरा माँजाया बच्चा था
हम देखेंगे कि कौन सही था - नज़रुल
या वे जो ज़िंदगी छीनकर खुदाई पर अपना हक़ जताते हैं
उनकी भविष्यवाणियों पर यक़ीन मत करना
जो लाशों से भी खेला करते हैं खेल
गोलियों और आग से शुरू हुई जंग ने
पहुँचाये हैं घर-घर तक कफ़न सफ़ेद
ज़मीन के इस हिस्से में किसी की ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं
मैं जानता हूँ खून जब बहता है तो सबके लिए बराबर
लेकिन बहन बान्ना, इन लफ़्ज़ों को सुनो
सबसे संगदिल से भी आज निकल रही है कराह ।
फरवरी २८, २०१५

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

ऐब कई तरह के होते हैं



गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ                        
विष्णु खरे 
भ्य’,’शरीफ़’,’कल्चर्ड’,’बूर्ज्वा बैठकख़ानों और घरों में तो उस अतिचर्चित प्रोग्राम का पूरा हिंग्लिशनाम तक नहीं लिया जा सकता ; शायद पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका भी अपने एकांत में उसे दुहराना न चाहें.उसका केन्द्रीयशब्द भले ही यूपी-बिहार का लोकप्रिय आविष्कार हो,उसे पूरे परिवार में पढ़े जाने वाले किसी हिंदी अखबार में ज्यों-का-त्यों छापा भी नहीं जा सकता सिर्फ़ चवर्गको लुप्त कर ‘’आल इंडिया बकओद’’’ से संकेत दिया जा सकता है.यों बकओदका खुलासा यह है कि जो मौक़े पर खड़ा रहकर कार्यरूप से कुछ भी परफॉर्मन कर सके,सिर्फ़ बकबक और शेख़ी से काम चलाए. 

मुंबई के महँगे,प्रतिष्ठित नैशनल स्पोर्ट्स क्लब में कथित उच्चवर्ग ( कृपया सिने-वर्गपढ़ें )  के ऐसे दर्शकों के सामने,जो 4000 रुपये प्रति व्यक्ति-टिकट पर निजी और गुप्त रूप से आमंत्रित किए गए थे, आयोजित और शूट किया गया यह कार्यक्रम अमेरिकी टेलीविज़न के अतिशय रिअलिटी’,’इन्सल्टऔर रोस्टिंगशो की श्रेणी में आता है.इसमें उन शब्दों, गालियों और टिप्पणियों से,जिन्हें आप चाहें तो अश्लील,फ़ोह्श,पोर्नोग्राफ़िक कह लें, स्टेज पर बैठाले गए विशिष्ट अतिथिओं का बेइंतिहा बेइज़्ज़ती से तिक्का-बोटी, कीमा, तंदूरी या सीख-कबाब  किया जाता है और ‘’वी आइ पी’’ दर्शकों और अनुपस्थितों के साथ भी कभी-भी वही सुलूक किया जा सकता  है.लोकप्रिय मुहावरे में कहा जाए तो सबकी सिर्फ़ माँ-बहन ही नहीं, हर दूसरे रिश्तेदार और नज़दीकी भी एक कर दिए जाते हैं.बल्कि यह नया स्टेटस सिंबलबन गया हैयदि आप को इस प्रोग्राम में देसी हिंदी या हार्लमी अमरीकी में योनि’,’लिंग’,’गुदा’,’कुटुंबसंभोगी अजाचारी’  वगैरह से संबोधित  नहीं किया गया तो साफ़ है कि आप एक मामूली आदमी,’नॉन-एंटिटीहैं और यूँ ही आमंत्रित या घुस आए हैं.दरअसल  एकमात्र और सबसे गंदी अनकही फब्ती यही मानी जाती है.

यह नहीं है कि अपने यहाँ कभी-कभी ऐसा न होता हो.होली के दिन,जो अब दूर नहीं, कपड़ों पर अपठनीय शब्दों के आलू-ठप्पे लगाए जाते हैं,भाँग (की पकौड़ी)  और दारू के नशे की आड़ में औरतों-बच्चों की आमोदित उपस्थिति में किस-किस को सार्वजनिक रूप से क्या-क्या नहीं कहा जाता,नंगे-से-नंगा नाच-गाना-छूना-जुलूस आदि होता है,आचार्य मस्तराम से होड़ लेनेवाली लुग्दी-पुस्तिकाएँ लिखी-छापी-बाँटी जाती हैं.उधर आंचलिक ब्याह-शादियों में ‘’लेडिस’’ वयस्कोचित अपशब्द गाती हैं,आपस में सुहागरात का अतियथार्थ अभिनय करती हैंऔर घराती-बराती सभी कुलपूज्य बहुत आड़ किन्तु बड़े लाड़ से यह सब सुनते-देखते हैं. लेकिन होली-सम्ध्याने का यह विरेचन कुछ घंटों का ही होता है,संयुक्त हिन्दू परिवार अपनीजैसी हैं जहाँ हैं’ ‘’महान नैतिक परम्पराओं’’ में फिर लौट जाता है.आल इंडिया बकओदजैसे भूमंडलीकृत,उदारचरित,बहुराष्ट्रीय,अरबडॉलरी,कॉर्पोरेट फ़्रेन्चाइज़्डशो तो बेचारे बच्चनजी की मासूम मधुशाला की तरह दिन होली और रात दिवालीरोज़ मनाते हैं.

बात आई-गई हो जाती यदि अपनी जाहिल मग़रूरी में करण जौहर,रणवीर सिंह,अर्जुन कपूर,दीपिका पदुकोणे,आलिया भट्ट,गुरसिमरन खम्बा,तन्मय भट्ट,रोहण जोशी,अदिति मित्तल,आशीष शाक्य,राजीव मसंद और क्लब के क्रमशः अध्यक्ष और सचिव जयंतीलाल शाह तथा रवीन्द्र अग्रवाल ने यह तय न कर लिया होता कि हम इतने नामचीन रसूखी  लोग हैं, देखें हम पर कौन हाथ डालता है.इस तरह इन बंदरों ने अपने राजाओं सलमान खान और आमिर खान की ‘’भावनाओं’’ पर अनायास अनजाने उस्तरा चला दिया. 

यह बात अलग है कि सलमान खान की हर फिल्म में कम बाज़ारू और फ़ोह्श सीन,डांस,डायलॉग और गाने नहीं होते और आमिर खान भी बोसडीके को भगा चुके हैं लेकिन बॉक्स ऑफिस कारणों से आज दोनों मुक़द्दस मवेशी बन चुके हैं और अल्लामियाँ ने तोभाई को साक्षात् गऊमाता जैसे दिमाग़ से भी नवाज़ रखा है.इन दो जोड़ी सींगों को अपनी जानिब  दौड़ते देखकर जौहर-गिरोह को ठंढा पसीना आ गया,मुआफ़ी की भीख माँगना शुरू हो गया और हिन्दुस्तानी इन्टरनैट पर जहाँ-जहाँ इनकी अखिल भारतीय बकओदमुहय्या थी उसे हटाना शुरू हो गया.लेकिन आज नैट से कुछ-भी नेस्तनाबूद कर पाना नामुमकिन है.उल्टे यह हुआ है कि सलमान खान के हत्या और शिकार के मुक़द्दमों को लेकर हज़ारों बहुत मज़ाहिया और नुकसानदेह जुमले नैट की फ़ास्ट-ट्रैक जन-अदालतों द्वारा लिखे-पढ़े जा रहे हैं.शायद आमिर पी केखान को भी निपटाया जा रहा हो.
लेकिन मूल मामला अब इतना तूल पकड़ चुका है किप्रशासनिक इन्क्वारियाँ शुरू कर दी गई हैं, हाइकोर्ट नेमुल्ज़िमों को नोटिस जारी कर दिए हैं, केन्द्रीय सरकार से पूछा जा रहा है कि सोशल मीडिया पर इस तरह की हरकतों के खिलाफ कार्रवाई का क्या मैकेनिज़्म है या हो,उधर बहती गटर-गंगा में हाथ धोने के लिए नए मामले दर्ज़ होने की दैनिक रिपोर्टें आ रहीं हैं.लेकिन यह भी है कि पुरानी फ़िल्मों के बकवादी ‘’हैम’’ भाजपाई शत्रुघ्न सिन्हा की लाडली बिटिया सोनाक्षी ने खुद को बकोदुओं के पक्ष में झोंक दिया है.नौ मन तेल का इन्तेज़ाम हो चुका हो तो राधा नाचेगी ही.

मुझे हैरत इस बात की है कि सनी लिओने के मामले की तरह इस पर भी हिंदी के ब्लॉग,अख़बार,कथित बुद्धिजीवी और विशेषतः अग्निवर्षक नारीवादी/वादिनियाँ,जो यूँ तो खुद काफ़ी बकोदू-लिखोदू हैं, इस क़दर सनाके में क्यों हैं ? लगता है आज हिंदी’-व्याकरण  में एक ही लिंग बचा हैनपुंसकलिंग.जबकि करण जौहर की बकोदू-मंडली के पक्ष में फिर वही महेश भट्ट,प्रीतीश नंदी और शोभा डेजैसे थर्ड-पेजीरोग्ज़ गैलरीवाले ख़सलती मशक़ूक़,जो नाम लेने लायक़ भी नहीं हैं, उसी तरह बकोदने पहुँच गए हैं जैसे किसी घर में बच्चा पैदा होने पर बृहन्नलाएँ पहुँच जाती हैं.

संक्षेप में ऐसे लोग यही मानते हैं कि दूसरे धर्मों को छोड़कर शेष सारे विश्व को किसी के बारे में कुछ भी कहने और बलात्कार को छोड़कर किसी के भी साथ कुछ भी करने का अधिकार है.हालाँकि मुझे यह लगता है कि यह मार्की द साद के मुरीद हैं और इनकी अंतरात्मा, यदि ऐसी कोई फालतू चीज़ इनके पास है तो, शायद हर तरह की हत्या और बलात्कार को भी अपनी सहिष्णुता, उदारता,प्रबुद्धता,आधुनिकता,’’सैंस ऑफ़ ह्यूमर’’ आदि का अंग मानती होगी.ऐसे परिवारों के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि किस तरह से  हर शाम  डाइनिंग-टेबल पर इनकेहर छोटे-बड़े एक-दूसरे को देशज हिंदी याझोपड़पट्टी अंग्रेज़ी में प्यार से योनि’,’लिंग’,’गुदा’,’स्तन’,’नितम्बआदि कहकर पुकारते होंगे,बात-बात में सम्भोग-सम्भोग’ (‘’‘’) का रिवायती हॉलीवुडी तकियाकलाम वापरते होंगे और डिनर के बाद सामूहिक रूप से सनी आंटी की ही एकाध क्लासिक फिल्म देख कर आपस में क्या करते होंगे.

अब मामला अदालत में है और हम नहीं जानते कि फ़ैसला क्या होगा लेकिन खजुराहो,’कामसूत्रआदि की दुहाई देना धूर्ततापूर्ण है .1947 तक की सहस्रवर्षीय अल्पसंख्यक शासकीय शामी संस्कृति की अन्य चीज़ों के अलावा प्रतिक्रियावादी यौन-नैतिकता की बहुसंख्यक ग़ुलामी ने इस मुल्क में बेहद बौद्धिक नुकसान किया है.आज हम एक सड़े-गले सुपरस्ट्रक्चरके सामने ऐसी पतनोन्मुख ‘’अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’’  से बेसको प्रबुद्ध और आधुनिक नहीं बना सकते.वैसे भी आज भारत को जैसा समतावादी समाज चाहिए उसमें ऐसे शो को जगह और स्वीकृति मिल ही नहीं सकती.और आज क्या मुस्लिम-सिख-जैन-ईसाई सरीखे अल्पसंख्यक भी ऐसे शो को गले लगा लेंगे ? देखते नहीं  हैंउस उर्दू अखबार की बेचारी संपादिका और उसके परिवार पर कितना भयानक असली  खतरा मँडरा रहा है ? क्या बकोद में भाग लेने वाले गे’ ‘मर्दोंऔर महेश भट्ट, प्रीतीश नंदी और शोभा डे आदि अनस्पीकेबिलोंमें इतनी हिम्मत है कि अगला कार्यक्रम ‘’शार्ली एब्दो’’ पर रखें-रखवाएँ और उसमें मंच पर जाएँ एक पतित, खाते-पीते-अघाए, पूयपूरित ‘’उच्च’’ वर्ग के सामने क्या यह पूँजीपतियों, बिल्डरों, माफ़ियाओं, अखबारों-चैनलों के मालिकों, आइ.ए.ऐसों, आइ.पी.ऐसों, नेताओं और आगे बढ़कर जजों, प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों के बारे में बकोद सकते हैं ? तो फिर आप हम कमोबेश लिखोदुओं-पढ़ोदुओं को काहे बकोदना सिखा रहे हैं ?
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