शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

प्रेम के लिए संस्‍कृति की दुहाई


यह आलेख, दखल प्रकाशन द्वारा अगले सप्‍ताह में प्रकाश्‍य विचार-पुस्तिका 'क्षीण संभावना की कौंध' में संकलित है। आज के दिन इसे शेयर करना प्रासंगिक होगा।
खबरें आती ही रहती हैं कि प्रेमी युगलों को पार्कों से, धार्मिक परिसरों से, प्राकृतिक
जगहों से और कई बार तो रेस्टॉरेन्ट जैसी जगहों से खदेड़ा जाता है। उनसे अपमान
की हदों तक जाकर व्यवहार किया जाता है। तात्कालिक किस्म की सजाएँ दी जाती
हैं। इस तरह का व्यवहार करनेवाले स्वयं को संस्कृति का पहरेदार कहते हैं।
यहाँ कुछ बिंदु विचारणीय हैं। जैसे यह कि, आप प्रेम और प्रेमियों को किस
दृष्टि से देखते हैं। समाजशास्त्र, इतिहास एवं मनोविज्ञान का जरा सा भी अध्ययन
स्पष्ट कर देगा कि स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम एक सहज मानवीय घटना है। समाज में
इसकी जगह होना ही चाहिए। संदेह है कि संसार में ऐसे अभागे लोग भी हों जिनके
मन में कभी प्रेम का बीज प्रस्फुटित न हुआ हो। उस प्रेम का गौरव या उसकी कसक
हर व्यक्ति के साथ जीवन भर चलती है। व्यक्तिगत बातचीत में सभी लोग अपने
सफल-असफल प्रेम-प्रसंगों को स्वीकार करते ही हैं, किस्से सुनाते हैं, आहें भरते हैं
और उसे एक तरह की प्रेरणा और मधुर स्मृति का हिस्सा मानते हैं।

फिल्में, लोकगीत और साहित्य का उल्लेखनीय हिस्सा प्रेम-प्रसंगों से पटा पड़ा
है। उनकी लोकप्रियता में यह तथ्य निहित है कि वे हमारी अव्यक्त या प्रकट या
दमित भावनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। यहाँ तक कि धार्मिक साहित्य में भी
स्त्री-पुरुष प्रेम की उदात्त, आत्मिक और दैहिक अभिव्यक्तियाँ उपलब्ध हैं। उन्हें
कितनी ही अलौकिकता या आध्यात्मिकता प्रदान कर दी जाये किंतु वे हैं तो
अपने-अपने समय के स्त्री-पुरुष प्रेम संबंध ही। इसके अलावा हीर-राँझा,
रूपमती-बाजबहादुर, शीरी-फरहाद, शाहजहाँ-मुमताज, सोहिनी-महिवाल जैसे किस्सों
का महिमामंडन भी प्रचलित है। यह सब भारतीय समाज की ही बात हो रही है
जिसमें रामचंद्र जी, सीता से सबसे पहले एक वाटिका में ही मिलते हैं, कृष्ण से राधा
का प्रेम तो गृहस्थजीवन में प्रवेश के उपरांत का है और वे इसके लिये उपवनों में,
कुंजों में, गलियों के कोनों-किनारों में ही मिलते थे, पार्वती ने शिव के लिए तपस्या
की, मीरा ने लोकलाज तक की परवाह नहीं की। इन प्रसंगों का सकारात्मक,
उल्लेखनीय पक्ष यह है कि हमारे समाज में इन्हें आदरणीय मान्यता प्राप्त है। लेकिन
आज इसी समाज का एक हिस्सा संस्कृति की दुहाई देता हुआ, प्रेमियों के प्रति
अमानवीय, हिंसक व्यवहार पर उतर आता है तो यह चिंतनीय है।

यह दोहराने में कोई हर्ज नहीं कि हमारा यह पूरा संसार प्रेम की ही पैदाईश
है। जब तक कोई किसी के साथ प्रेम के नाम पर जबर्दस्ती न कर रहा हो, किसी
को बरगला न रहा हो, धोखा न दे रहा हो, तब तक किसी तीसरे को हक नहीं कि
किन्हीं दो के प्रेम के बीच में वह व्यवधान डाले। सार्वजनिक स्थानों पर भी जब तक
कोई युगल ऐसी आपत्तिजनक स्थिति में संलग्न न हो जिससे किसी दूसरे की
गरिमा, सम्मान या स्वतंत्रता बाधित होती हो, तब तक किसी को भी उनके बीच
खलल डालने का अधिकार नहीं है। जो नैतिकता का प्रश्न उठाते हैं उन्हें समझना
चाहिए कि प्रेम अपने आप में एक नैतिक कार्य है। इसे किसी अनैतिकता के दायरे
में परिभाषित करने की कोशिश एक पिछड़े, विचारहीन, असभ्य समाज का परिचय
है। प्रेम करना एक मानवाधिकार भी है। यह अधिकार केवल तब सीमित होता है
जब इस वजह से किसी अन्य के अधिकार का हनन हो रहा हो।
लेकिन हम देख रहे हैं कि प्रेमी-युगलों के साथ अपराधियों की तरह व्यवहार
किया जा रहा है। पुलिस उन पर डंडे बरसाने में संकोच नहीं करती और संस्कृति
के तथाकथित रक्षक उन्हें मारने-पीटने में गौरवान्वित अनुभव करते हैं। माता-पिता
को बुलाकर या थाने में बैठाकर उन्हें लज्जित किया जाता है। जबकि वास्तविक
अपराधी वे हैं जो इन प्रेमियों या संभव हों कि वे आपस में महज मित्र ही हों, से
दोषियों की तरह पेश आते हैं। स्त्री-पुरुष को साथ में देखते ही जिन्हें केवल
प्रेमी-प्रेमिका होने का बोध होता है, ऐसे लोगों की मानसिकता ही दूषित है। वेलेंटाईन
डे पर देखा गया है कि धर्म के नाम पर बनाये गये संगठनों द्वारा भाई-बहिनों को
या आपस में रिश्तेदारों, परिचित पड़ोसियों या मित्र स्त्री-पुरुषों को प्रताडि़त कर दिया
जाता है। राजनैतिक कारणों से इनके पक्ष में कानून-व्यवस्था भी नहीं है। यही
फासीवादी लक्षण हैं। खाप पंचायतें जैसे दृश्‍य तो अमानवीयता की पराकष्‍ठा हैं। 

जब हमने समाज में सहशिक्षा को स्वीकार कर लिया है, कार्यस्थलों पर
स्त्री-पुरुष काम करते हैं, हर क्षेत्र में स्त्री-पुरुषों के मिलने-जुलने के अवसर हैं, तब
यह स्वाभाविक है कि उनके बीच मित्रता के, प्रेम के या व्यक्तिगत पसंद-नापसंद
के संबंध भी बनेंगे। जितनी सहजता से हमें पुरुष और पुरुष की मित्रता स्वीकार्य
है, उसी सहजता से पुरुष-स्त्री के मित्रता और प्रेमपूर्ण संबंध को भी स्वीकार करना
चाहिये। सबसे बड़ी बात है कि स्त्री-पुरुष के स्वस्थ, मैत्रीपूर्ण, सहयोगी संबंधों को
कहीं हम ही तो गलत निगाह से नहीं देखते। कहीं हमारे भीतर ही तो वह अस्वस्थ
दृष्टि नहीं बन गयी जो प्रेमविरोधी है और स्त्री-पुरुष संबंध को पहले से अनैतिक
मान लेती है? लगता है हमारे अपने अंतर्मन में कोई खोट, द्वेष या ग्रंथि है जो हमें
इन संबंधों को सहजता से नहीं लेने देती। अथवा नैतिकता की कोई सँकरी परिभाषा
बना ली गयी है जो पुरातनपंथी संस्कारों के रूप में हमारे मन में जगह जमा चुकी
है।

समस्यामूलक चिंतन यह होना चाहिए कि ये प्रेमी या मित्र यदि आपस में
कुछ निजी बातचीत करना चाहें, कुछ समय बिताना चाहें तो इस बंद और अनुन्नत
समाज में वे आखिर कहाँ जायें। उन्हें हर जगह शक की निगाह से देखा जाता है,
हर जगह उनके लिए बाधाएँ खड़ी की जाती हैं और कह सकते हैं कि अब तो उनका
जीना ही हराम कर दिया गया है। तब उनके पक्ष में, प्रेम की तरफदारी में कुछ बातें
सोचने की जरूरत आन पड़ी है। क्योंकि हम इक्कीसवीं सदी में आ ही गये हैं तो
प्रेम को लेकर भी हमारे विचार आधुनिक होना चाहिए। किसी समाज की प्रगति
देखने का एक पैमाना यह भी है कि उसमें स्त्री-पुरुष मित्रता या उनके संबंधों को
कितनी उदारता या संकीर्णता से देखा जाता है। क्षोभ है कि हमारे देश में प्रेमियों
को निजी एकांत की जगह तक नहीं दी जा रही है। यह हमारे बौद्धिक, सांस्कृतिक
पिछड़ेपन का ही उदाहरण है। जबकि हमें अपनी युवा पीढ़ी पर इतना भरोसा करना
चाहिए कि वे अपने प्रेम संबंधों में भी जवाबदारी का परिचय देगी। यदि इससे उन्हें
कोई निजी लाभ-हानि होती भी है तो यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विषय है।
जब तक हमारे घर-परिवारों में पुत्र-पुत्रियों, स्त्री-पुरुष मित्रों को घरों में ही मिल
सकने की, बातचीत करने की स्वतंत्रता देने की आधुनिक मानसिकता नहीं बनती
है तब तक पहल यह होना चाहिए कि शहरों में ऐसी जगहें विकसित की जायें जहाँ
ये प्रेमी या मित्र, बेखटके मिल-जुल सकें। पुलिस की भूमिका केवल इतनी हो कि
उन्हें कोई अपमानित न करे और उनकी निश्चल शांति को भंग न कर सके। इस
बीच परिवार और समाज में उपस्थित सामंती मानसिकता से भी लड़ाई जारी रहना
चाहिए, यही हमारी संस्कृति की सच्ची परंपरा है और यही आधुनिकता की उदात्त
मानवीय धारा भी।

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

हिन्‍दुजन: एक वैकल्पिक खतरनाक वर्तमान



हमारे समय के प्रखर कवि, विचारक और हस्‍तक्षेपकर्ता अग्रज साथी विष्‍णु खरे की यह टिप्‍पणी अविकल यहॉं दी जा रही है। इसकी चिंताऍं और खतरे अब हम सबके सामने सुस्‍पष्‍ट हैं।

भारत के विश्व पुस्तक मेले का आग़ाज़ शायद इससे अधिक विडंबना से नहीं हो सकता था.जब कथित रूप से सारे संसार से प्रकाशक और पुस्तक-विक्रेता देश की राजधानी आए हुए हैं,और पोलैंड से एक अपर्याप्त,अल्पज्ञात लेखक-मंडल भी,तब एक प्रतिष्ठित विश्वव्यापी अंग्रेज़ी प्रकाशन-गृह की भारतीय शाखा ने,जो इस देशी मेले में वर्षों से प्रमुखता से भाग लेती रही है, निर्णय लिया है कि वह एक विदेशी विदुषी द्वारा लिखित, भारत से ही सम्बंधित अपने एक बहुचर्चित,पुरस्कृत,बहुविक्रीत  अंग्रेज़ी प्रकाशन  को न सिर्फ़ भारतीय बाज़ार से हटा लेगी बल्कि भारत में उपलभ्य उसकी एक-एक प्रति को अगले छः महीनों में खोज-खोज कर उसकी लुग्दी बना देगी.    

यहूदी मूल की,लगभग 74-वर्षीया,वेंडी डॉनिगर विश्वविख्यात भारतविद् हैं.उनके पास कई अर्जित-मानद डॉक्टरेट उपाधियाँ हैं,वे वर्षों से शिकागो में भारतविद्या की प्रोफ़ेसर हैं और अनेक पुस्तकों की रचेता हैं.यूँ तो आज तक यह तय नहीं हो पाया है कि हिन्दू धर्म आखिरकार है क्या,वह ‘हिन्दू’ या ‘धर्म’ है भी या नहीं,क्योंकि कई बार लगता है कि ‘नेति,नेति’ उसी के लिए कहा गया है,उसका कोई एक ग्रन्थ या एक पैग़म्बर न कोई है न हो सकता है,और यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा हथिया लिए जाने के कारण ‘हिंदुत्व’ और ‘हिन्दुत्ववादी’ पद कुपद बन चुके हैं,लेकिन डॉनिगर इन्हीं विषयों को पढ़ाती और इन्हीं पर बोलती-लिखती रही हैं.वे हिन्दू धर्म की अन्धानुयायी या सिस्टर निवेदिता या मादाम ब्लावात्स्की नहीं हैं और उन्होंने एक प्रबुद्ध,आधुनिक और खिलंदड़ा दिमाग़ पाया है इसलिए उन  विषयों पर उनका बोला और लिखा गया विवादास्पद भी सिद्ध हुआ है. लेकिन उनकी हाल की अंतिम पुस्तक,’द हिंदूज़ : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ ( ‘हिन्दूजन : एक वैकल्पिक इतिहास’ ),हुज्जत की हदें तोड़ती हुई हिन्दुस्तानी अदालती बाड़े में पहुँच गई.मुद्दआ जाना-पहचाना था – ‘यह किताब अश्लील है और  हिन्दू धर्म तथा  कुछ वंदनीय हिन्दुओं का अपमान करती है’.इससे पहले कि मुआमला और तूल पकड़े,मुददआअलैह प्रकाशन-गृह ने आत्म-समर्पण करने में ही बेहतरी समझी और पूरे भारत से किताब को नेस्तनाबूद कर देने के करारदाद पर दस्तख़त कर दिए.संसार के पुस्तक प्रकाशन इतिहास में शायद ही किसी आधुनिक,जनतांत्रिक,धर्म-निरपेक्ष देश में मुक़द्दमा हारने से पहले ही किसी प्रकाशक ने अपनी किताब के साथ ऐसा क़ातिलाना सुलूक किया हो.

मुद्दई कोई ‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ है जिसके नुमाइंदे कोई दीनानाथ बत्रा साहब हैं, जिन्हें शायद  ‘बतरा’ या ‘बत्तरा’ भी लिख सकते होंगे – इन विभाजनोत्तर कुलनामों का कुछ भरोसा नहीं होता.लेकिन प्रकाशन-गृह कोई और नहीं बल्कि पेन्ग्विन बुक्स हैं जो ग्लोबल स्तर पर सामान्य पाठकों से लेकर सर्वोच्च लेखकों-बुद्धिजीवियों के बीच सुप्रतिष्ठित हैं  और संसार-भर में अपने प्रकाशनों की करोड़ों प्रतियाँ बेचते हैं.भारत पर यह विशेष कृपालु हैं – यहाँ के अंग्रेज़ी लेखकों को एहसासे-यतीमी से बचाने के लिए इनका अलग स्वायत्त विभाग है और पिछले कुछ वर्षों से हिंदी लेखकों को सरज़द एहसासे-कमतरी से छुटाने के लिए इन्होंने एक भाषा-उपविभाग भी खोल दिया है और नाना प्रकार के चालक साहित्य-मेलों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं.हिंदी के कई युवा और अधेड़ ‘लेखक’ अपने ब्लॉगों पर न सिर्फ़ दरियागंजी  प्रकाशकों की सपरिवार गुलामी कर रहे हैं बल्कि हिंदी पेन्ग्विन की निर्लज्ज चाटुकारिता और दलाली पर भी उतर आए हैं और, बकौल ज्ञानरंजन, जहाँ से आदमी की पूँछ झड़ चुकी है, वहाँ कृतकृत्य गुदगुदी अनुभव कर रहे हैं.हिंदी का दिल्ली-6 स्थित कोई पिद्दीजान तलुआचाटू प्रकाशक होता तो उसकी ऐसी वणिक-सुलभ कायरता  अपनी स्वाभाविकता में फ़ौरन समझ में आ जाती, लेकिन पेन्ग्विन ? वेंडी डॉनिगर सहित संसार के अधिकांश पाठक-लेखक-बुद्धिजीवी पेन्ग्विन की इस एकतरफ़ा बुज़दिली से पहले स्तब्ध लेकिन अब आग-बबूला हैं.एक प्रश्न यह है कि कोई प्रकाशक लेखक के संज्ञान और अनुमति के बिना उसके विक्रयशील प्रकाशन को एक देशविशेष में ही सही, लेकिन क्या इस तरह नष्ट कर सकता है ? विदेशी प्रकाशनों में तो लेखक के नैतिक अधिकार तक की घोषणा छपती है. ज़ाहिर है कि पेन्ग्विन ने यह शर्मनाक निर्णय किन्हीं बड़े दबावों में या किसी भयावह आशंका में लिया होगा. 

हमें नहीं मालूम कि ‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ और दीनानाथ ब(त/त्/त्त)रा की राजनीति क्या है, आया उनका यह मुक़द्दमा Suo Motu था, वह वकीलों की फ़ीस कहाँ से देते थे, या फिर उनके पीछे कोई ‘हिन्दुत्ववादी’ शक्तियाँ हैं. यूँ उनहोंने यह भयावह चेतावनी दे दी है कि ‘मैंने लड़ाई जीत ली है लेकिन युद्ध जीतना अभी बाक़ी है...हम ऐसे कई दूसरे लेखकों और प्रकाशकों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई में लगे हुए हैं जिन्होंने अपने ऊपर हिन्दू धर्म को विकृत करने का जिम्मा उठा रखा है’. लेकिन शक़ यह होता है कि सारी पश्चिमी दुनिया और उसकी विश्वव्यापी संस्थाओं की तरह पेन्ग्विन ने भी यह जान-मान  लिया है कि मई-जून 2014 तक भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा (नियंत्रित) सरकार होगी. यदि उन्होंने अपनी इस तरह की किताबें अविलम्ब वापिस न लीं तो उनके धंधे में इतनी रुकावटें डाली जा सकती हैं – हिटलर के ज़माने की तरह उनकी होली जलाई जा सकती है, विक्रेताओं पर पत्थरों या हथियारों से हमले करवाए जा सकते हैं, दोनों को मुक़दमों और जेलों में फँसाया-डलवाया जा सकता है – कि उन्हें भारत से अपना करोड़ों का बिज़नेस समेट कर जाना पड़ जाय. वैश्विक बनियावी उसूल  ‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ पर अमल करते हुए पेन्ग्विन ने अपनी शर्मो-हया की चमड़ी उधेड़ उसकी जूतियाँ अभी से बनवाकर हिन्दुत्ववादियों को पहना  हैं. जब पेन्ग्विन ऐसा कर सकते हैं तो अन्य विदेशी प्रकाशकों और उनके भारतीय फ़्रेंचा- इज़ियों को इशारा और दीनानाथ की चेतावनी  समझते देर न लगी होगी. हिंदी प्रकाशन ‘घराने’ तो लगभग 95 फ़ीसद प्रच्छन्न या प्रकट प्रतिक्रियावादी-भाजपाई हैं ही. फ़िलहाल ग़नीमत यह है कि किताब पर सल्मान रुश्दी की ‘द सैटेनिक वर्सेज़’ की तर्ज़ पर रोक नहीं लगी है, उसके विदेशी संस्करण को भारत में अपनी जोखिम पर बेचा-ख़रीदा जा सकता है और ‘किन्ड्ल’ पर तो वह हमेशा सशुल्क उपलब्ध है ही.

यह कल्पनातीत है कि केन्द्रीय साहित्य अकादेमी, भाजपा की अपनी अभिभावक सरकार के आ जाने से पहले इस शर्मनाक काण्ड की भर्त्सना करने की नैतिक इच्छा या हिम्मत जुटा पाएगी, जबकि इमरजेंसी के ज़माने में उसने इंदिरा गाँधी की लेखिका फुफेरी बहन नयनतारा सहगल के एक लम्बे, साहसिक प्रतिवाद को चालाकी से अपनी कार्रवाई के रिकॉर्ड में ले लिया था, जो अब भी वहाँ दर्ज़ है. यह देखना दिलचस्प होगा कि जरा-जीर्ण रज़ा फाउंडेशन के अति-मुखर वाक्-स्वातंत्र्य चैंपियन हमारे मित्र इस मामले पर क्या कहते-करते हैं. लेकिन वहाँ भी करोड़ों-अरबों रुपयों के ट्रस्ट और अब भी कई प्रकार की वर्तमान और भावी रसरंजक नौकरियों और जिम्मेदारियों की संभावना का सवाल है. फिर उन्होंने कभी भाजपा आदि को उनके सही नाम से पुकारने का साहस अब तक दिखाया नहीं है. उनकी हिम्मत तो पिछले दिनों देखी जा चुकी है जब उन्होंने अनंतमूर्ति के मामले को लेकर एक मुँहतोड़ सामूहिक पत्र का मसव्विदा अपूर्वानंद,पुरुषोत्तम अग्रवाल,नामवर सिंह,राजेंद्र यादव आदि कुछ प्रारंभिक दस्तखतों के साथ ‘सर्कुलेट’ किया था, लेकिन जब उनके भविष्यदृष्टा पेशेवर अवसरवादी गिरगिट मुसाहिबों ने समझाया कि आक़ा क्यों हमें 2014 के बाद मरवाने पर तुले हैं तो उन पालतुओं पर जीवदया दिखाते हुए उसे ‘सप्रैस’ कर लिया गया. वैसे भी जब कभी-कभार डेढ़-दो सौ मेंगनी-शब्दों से ही हिंदी जगत को चुग़द बनाया जा सकता हो तो अंग्रेज़ी के बड़े-बड़े आत्महंता प्रतिवेदन ज़माने-भर में क्यों भेजे जाएँ. हिंदी के जो दयनीय हुडुकलुल्लू बिला नागा पेन्ग्विन के चपरासियों के पाँव चाँपने पहुँचा करते है उनसे तो कोई उम्मीद करना शिखंडी से अश्वत्थामा के पितृत्व-परीक्षण की जाँच में ‘पॉज़िटिव’ आने की आशंका जैसा होगा.
विष्णु खरे