हमारे समय के प्रखर कवि, विचारक और हस्तक्षेपकर्ता अग्रज साथी विष्णु खरे की यह टिप्पणी अविकल यहॉं दी जा रही है। इसकी चिंताऍं और खतरे अब हम सबके सामने सुस्पष्ट हैं।
भारत के विश्व पुस्तक मेले का आग़ाज़ शायद इससे अधिक विडंबना से नहीं हो सकता
था.जब कथित रूप से सारे संसार से प्रकाशक और पुस्तक-विक्रेता देश की राजधानी आए
हुए हैं,और पोलैंड से एक अपर्याप्त,अल्पज्ञात लेखक-मंडल भी,तब एक प्रतिष्ठित विश्वव्यापी
अंग्रेज़ी प्रकाशन-गृह की भारतीय शाखा ने,जो इस देशी मेले में वर्षों से प्रमुखता
से भाग लेती रही है, निर्णय लिया है कि वह एक विदेशी विदुषी द्वारा लिखित, भारत से
ही सम्बंधित अपने एक बहुचर्चित,पुरस्कृत,बहुविक्रीत अंग्रेज़ी प्रकाशन को न सिर्फ़ भारतीय बाज़ार से हटा लेगी बल्कि भारत
में उपलभ्य उसकी एक-एक प्रति को अगले छः महीनों में खोज-खोज कर उसकी लुग्दी बना
देगी.
यहूदी मूल की,लगभग 74-वर्षीया,वेंडी डॉनिगर विश्वविख्यात भारतविद् हैं.उनके
पास कई अर्जित-मानद डॉक्टरेट उपाधियाँ हैं,वे वर्षों से शिकागो में भारतविद्या की
प्रोफ़ेसर हैं और अनेक पुस्तकों की रचेता हैं.यूँ तो आज तक यह तय नहीं हो पाया है
कि हिन्दू धर्म आखिरकार है क्या,वह ‘हिन्दू’ या ‘धर्म’ है भी या नहीं,क्योंकि कई
बार लगता है कि ‘नेति,नेति’ उसी के लिए कहा गया है,उसका कोई एक ग्रन्थ या एक
पैग़म्बर न कोई है न हो सकता है,और यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रतिक्रियावादी और
साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा हथिया लिए जाने के कारण ‘हिंदुत्व’ और ‘हिन्दुत्ववादी’
पद कुपद बन चुके हैं,लेकिन डॉनिगर इन्हीं विषयों को पढ़ाती और इन्हीं पर
बोलती-लिखती रही हैं.वे हिन्दू धर्म की अन्धानुयायी या सिस्टर निवेदिता या मादाम
ब्लावात्स्की नहीं हैं और उन्होंने एक प्रबुद्ध,आधुनिक और खिलंदड़ा दिमाग़ पाया है
इसलिए उन विषयों पर उनका बोला और लिखा गया विवादास्पद भी सिद्ध
हुआ है. लेकिन उनकी हाल की अंतिम पुस्तक,’द हिंदूज़ : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ (
‘हिन्दूजन : एक वैकल्पिक इतिहास’ ),हुज्जत की हदें तोड़ती हुई हिन्दुस्तानी अदालती
बाड़े में पहुँच गई.मुद्दआ जाना-पहचाना था – ‘यह किताब अश्लील है और हिन्दू धर्म तथा कुछ वंदनीय हिन्दुओं का अपमान करती है’.इससे
पहले कि मुआमला और तूल पकड़े,मुददआअलैह प्रकाशन-गृह ने आत्म-समर्पण करने में ही
बेहतरी समझी और पूरे भारत से किताब को नेस्तनाबूद कर देने के करारदाद पर दस्तख़त कर
दिए.संसार के पुस्तक प्रकाशन इतिहास में शायद ही किसी
आधुनिक,जनतांत्रिक,धर्म-निरपेक्ष देश में मुक़द्दमा हारने से पहले ही किसी प्रकाशक
ने अपनी किताब के साथ ऐसा क़ातिलाना सुलूक किया हो.
मुद्दई कोई ‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ है जिसके नुमाइंदे कोई दीनानाथ बत्रा साहब
हैं, जिन्हें शायद ‘बतरा’ या ‘बत्तरा’ भी
लिख सकते होंगे – इन विभाजनोत्तर कुलनामों का कुछ भरोसा नहीं होता.लेकिन
प्रकाशन-गृह कोई और नहीं बल्कि पेन्ग्विन बुक्स हैं जो ग्लोबल स्तर पर सामान्य
पाठकों से लेकर सर्वोच्च लेखकों-बुद्धिजीवियों के बीच सुप्रतिष्ठित हैं और संसार-भर में अपने प्रकाशनों की करोड़ों
प्रतियाँ बेचते हैं.भारत पर यह विशेष कृपालु हैं – यहाँ के अंग्रेज़ी लेखकों को
एहसासे-यतीमी से बचाने के लिए इनका अलग स्वायत्त विभाग है और पिछले कुछ वर्षों से
हिंदी लेखकों को सरज़द एहसासे-कमतरी से छुटाने के लिए इन्होंने एक भाषा-उपविभाग भी
खोल दिया है और नाना प्रकार के चालक साहित्य-मेलों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे
हैं.हिंदी के कई युवा और अधेड़ ‘लेखक’ अपने ब्लॉगों पर न सिर्फ़ दरियागंजी प्रकाशकों की सपरिवार गुलामी कर रहे हैं बल्कि
हिंदी पेन्ग्विन की निर्लज्ज चाटुकारिता और दलाली पर भी उतर आए हैं और, बकौल
ज्ञानरंजन, जहाँ से आदमी की पूँछ झड़ चुकी है, वहाँ कृतकृत्य गुदगुदी अनुभव कर रहे
हैं.हिंदी का दिल्ली-6 स्थित कोई पिद्दीजान तलुआचाटू प्रकाशक होता तो उसकी ऐसी
वणिक-सुलभ कायरता अपनी स्वाभाविकता में
फ़ौरन समझ में आ जाती, लेकिन पेन्ग्विन ? वेंडी डॉनिगर सहित संसार के अधिकांश
पाठक-लेखक-बुद्धिजीवी पेन्ग्विन की इस एकतरफ़ा बुज़दिली से पहले स्तब्ध लेकिन अब आग-बबूला
हैं.एक प्रश्न यह है कि कोई प्रकाशक लेखक के संज्ञान और अनुमति के बिना उसके
विक्रयशील प्रकाशन को एक देशविशेष में ही सही, लेकिन क्या इस तरह नष्ट कर सकता है
? विदेशी प्रकाशनों में तो लेखक के नैतिक अधिकार तक की घोषणा छपती है. ज़ाहिर है कि
पेन्ग्विन ने यह शर्मनाक निर्णय किन्हीं बड़े दबावों में या किसी भयावह आशंका में
लिया होगा.
हमें नहीं मालूम कि ‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ और दीनानाथ ब(त/त्/त्त)रा की
राजनीति क्या है, आया उनका यह मुक़द्दमा Suo Motu था, वह वकीलों की फ़ीस कहाँ से
देते थे, या फिर उनके पीछे कोई ‘हिन्दुत्ववादी’ शक्तियाँ हैं. यूँ उनहोंने यह
भयावह चेतावनी दे दी है कि ‘मैंने लड़ाई जीत ली है लेकिन युद्ध जीतना अभी बाक़ी
है...हम ऐसे कई दूसरे लेखकों और प्रकाशकों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई में लगे हुए
हैं जिन्होंने अपने ऊपर हिन्दू धर्म को विकृत करने का जिम्मा उठा रखा है’. लेकिन
शक़ यह होता है कि सारी पश्चिमी दुनिया और उसकी विश्वव्यापी संस्थाओं की तरह
पेन्ग्विन ने भी यह जान-मान लिया है कि
मई-जून 2014 तक भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा (नियंत्रित) सरकार
होगी. यदि उन्होंने अपनी इस तरह की किताबें अविलम्ब वापिस न लीं तो उनके धंधे में
इतनी रुकावटें डाली जा सकती हैं – हिटलर के ज़माने की तरह उनकी होली जलाई जा सकती
है, विक्रेताओं पर पत्थरों या हथियारों से हमले करवाए जा सकते हैं, दोनों को मुक़दमों
और जेलों में फँसाया-डलवाया जा सकता है – कि उन्हें भारत से अपना करोड़ों का बिज़नेस
समेट कर जाना पड़ जाय. वैश्विक बनियावी उसूल
‘चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए’ पर अमल करते हुए पेन्ग्विन ने अपनी शर्मो-हया की
चमड़ी उधेड़ उसकी जूतियाँ अभी से बनवाकर हिन्दुत्ववादियों को पहना हैं. जब पेन्ग्विन ऐसा कर सकते हैं तो अन्य
विदेशी प्रकाशकों और उनके भारतीय फ़्रेंचा- इज़ियों को इशारा और दीनानाथ की चेतावनी समझते देर न लगी होगी. हिंदी प्रकाशन ‘घराने’ तो
लगभग 95 फ़ीसद प्रच्छन्न या प्रकट प्रतिक्रियावादी-भाजपाई हैं ही. फ़िलहाल ग़नीमत यह
है कि किताब पर सल्मान रुश्दी की ‘द सैटेनिक वर्सेज़’ की तर्ज़ पर रोक नहीं लगी है, उसके
विदेशी संस्करण को भारत में अपनी जोखिम पर बेचा-ख़रीदा जा सकता है और ‘किन्ड्ल’ पर
तो वह हमेशा सशुल्क उपलब्ध है ही.
यह कल्पनातीत है कि केन्द्रीय साहित्य अकादेमी, भाजपा की अपनी अभिभावक सरकार
के आ जाने से पहले इस शर्मनाक काण्ड की भर्त्सना करने की नैतिक इच्छा या हिम्मत
जुटा पाएगी, जबकि इमरजेंसी के ज़माने में उसने इंदिरा गाँधी की लेखिका फुफेरी बहन
नयनतारा सहगल के एक लम्बे, साहसिक प्रतिवाद को चालाकी से अपनी कार्रवाई के रिकॉर्ड
में ले लिया था, जो अब भी वहाँ दर्ज़ है. यह देखना दिलचस्प होगा कि जरा-जीर्ण रज़ा
फाउंडेशन के अति-मुखर वाक्-स्वातंत्र्य चैंपियन हमारे मित्र इस मामले पर क्या
कहते-करते हैं. लेकिन वहाँ भी करोड़ों-अरबों रुपयों के ट्रस्ट और अब भी कई प्रकार
की वर्तमान और भावी रसरंजक नौकरियों और जिम्मेदारियों की संभावना का सवाल है. फिर
उन्होंने कभी भाजपा आदि को उनके सही नाम से पुकारने का साहस अब तक दिखाया नहीं है.
उनकी हिम्मत तो पिछले दिनों देखी जा चुकी है जब उन्होंने अनंतमूर्ति के मामले को
लेकर एक मुँहतोड़ सामूहिक पत्र का मसव्विदा अपूर्वानंद,पुरुषोत्तम अग्रवाल,नामवर
सिंह,राजेंद्र यादव आदि कुछ प्रारंभिक दस्तखतों के साथ ‘सर्कुलेट’ किया था, लेकिन
जब उनके भविष्यदृष्टा पेशेवर अवसरवादी गिरगिट मुसाहिबों ने समझाया कि आक़ा क्यों
हमें 2014 के बाद मरवाने पर तुले हैं तो उन पालतुओं पर जीवदया दिखाते हुए उसे ‘सप्रैस’
कर लिया गया. वैसे भी जब कभी-कभार डेढ़-दो सौ मेंगनी-शब्दों से ही हिंदी जगत को
चुग़द बनाया जा सकता हो तो अंग्रेज़ी के बड़े-बड़े आत्महंता प्रतिवेदन ज़माने-भर में
क्यों भेजे जाएँ. हिंदी के जो दयनीय हुडुकलुल्लू बिला नागा पेन्ग्विन के चपरासियों
के पाँव चाँपने पहुँचा करते है उनसे तो कोई उम्मीद करना शिखंडी से अश्वत्थामा के
पितृत्व-परीक्षण की जाँच में ‘पॉज़िटिव’ आने की आशंका जैसा होगा.
3 टिप्पणियां:
परतें उघाड़ता लेख...|‘’हिन्दुइज्म एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’’ की बाकी प्रतियां उसके प्रकाशक पेंगुइन इण्डिया द्वारा नष्ट कर दी जायेंगी ..लेखिका वेंडी दौगिनर इस निर्णय से आहत हैं वे कहती हैं ‘’असल खलनायक भारत का क़ानून है |’’यद्यपि ये इंटरनेट और विदेशों में उपलब्ध रहेगी |विष्णु जी ने अपनी ख़ास ‘’लेखिकीय अदा’’ के मुताबिक़ पेंगुइन द्वारा लिए गए इस (अभूतपूर्व नहीं क्यूँ की एन सी ई आर टी सहित कई लेखक/कलाकार भी इन हमलों से जूझते रहे हैं ))निर्णय की गहन पड़ताल की है, कटघरे में खड़ा किया है |लगे हाथों हिन्दू धर्म की ‘’कलई खोलने’’ के दो चार वाक्य भी उन्होंने संदर्भित कर जोड़ दिए हैं जो विश्व विख्यात हिन्दुस्तानी संस्कृति के बहुलतावाद की दुखती रग हैं |खबर है की संस्था प्रमुख श्री दीनानाथ बत्रा एक संस्था जो आर एस एस का ही एक अंग (शाखा )है के नेता हैं|किसी किताब के बाकायदा प्रकाशित हो जाने के बाद वो भी एक बेहद प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह से ,रोक दिया जाना कई आकस्मिक दबावों की और इशारा तो करता ही है |...विष्णु जी के लेख का आख़िरी पैरा अद्भुत..:)
सुंदर टिप्पड़ी
क्या इसकी साफ्ट कापी उपलब्ध है ताकि पढ़ा जाए एंडी ने लिखा क्या है।
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