जब पैसा पास में आ जाता है तो विचारधारा अनावश्यक जान पड़ने लगती है। आज हम अपने कस्बों-शहरों में देख सकते हैं कि साहित्य में, तत्संबंधी आयोजनों में, पुरस्कर्ताओं में नवधनाढ्यवर्ग घुस गया है और वह लगातार विचारधारा के विरोध में बात करता है। वह लगभग अपढ़ है। आप ऐसे लोगों को जरा नजदीक से देखें, जानें तो पता चलेगा कि इनके पास काफी धन-संपत्ति है। या ऐसी नौकरी है जहाँ प्रचुर आर्थिक सुरक्षा है। शानदार पेंशन है। या बेहतर व्यवसाय है। अति साधन संपन्नता है। या संस्थान हैं। जैसे ही धन का प्रवेश होता है, विचारधारा गायब होने लगती है। क्योंकि अब विचारधारा रहेगी तो खुद के खिलाफ ही मुश्किल पेश करेगी।
फिर ये अपढ़ लोग अपनी मतिमंदता छिपाने के लिए मानवतावाद की दुहाई देने लगते हैं। जबकि शोषक भी मानव होता है और शोषित भी। अत्याचारी भी मनुष्य ही होता है और प्रताडि़त व्यक्ति भी मनुष्य होता है। फोर्ब्स सूची के अमीरों में भी मनुष्यों का नाम होता है और निर्धनतम लोगों में भी मानव ही रहेंगे। मानवतावाद की आड़ में आप पक्षधर होने से बचना चाहते हैं। अपनी राय और अपनी सहानुभूति को जाहिर नहीं करना चाहते। साहित्य में और जीवन में भी वंचित समाज के साथ खड़े नहीं होना चाहते। लेखक को विचारशील, पक्षधर की तरह पेश होना होता है, मानवाधिकार आयोग के माननीय सदस्य की तरह नहीं।
यही कारण है कि इधर वे तमाम पत्रिकाएँ, जिनमें हमारी अनेक लघु पत्रिकाएँ भी शामिल होती जा रही हैं, जिन्हें हर तरफ से विज्ञापन चाहिए, सत्ता से समझौते चाहिए, आर्थिक सहारे और अफसर-व्यापारियों की कृपा चाहिए क्योंकि उन्हें पत्रिका से कमाई भी करना है, उन सबमें पिछले रास्तों से समावेशी दृष्टि प्रवेश कर चुकी है। उनकी विचारधारा गायब हो गई है और एक उदार छबि बनती जा रही है। वामपंथ या पक्षधरता उनके स्वभाव और आकांक्षा से विलोपित हो रही है।
यह पूँजीवाद का ग्लूकोज है और धनलिप्सा है जो रिसकर उनकी शिराओं में पैठ गई है। इसलिए इधर किसी भी साहित्यिक गोष्ठी में, पत्रिकाओं में कोई विमर्श नहीं है, कोई मतभेद नहीं, कोई झगड़ा-टंटा नहीं, चिंता की कोई लकीर नहीं है, एक सहज आश्वस्ति है, मित्रभाव है, सहमति है, बेधड़क आशा है और पिकनिक है। अचरज नहीं होना चाहिए कि रचनाओं में संघर्ष, प्रतिरोध, प्रतिवाद, व्यग्रता और जिजीविषा के स्त्रोत सूखते जा रहे हैं। एक खास तरह की रूमानियत इन सबकी जगह ले रही है या ऐसी विवरणिकाएँ जो अपने मूल में सर्जनात्मकता प्रेरित नहीं हैं।
फिर ये अपढ़ लोग अपनी मतिमंदता छिपाने के लिए मानवतावाद की दुहाई देने लगते हैं। जबकि शोषक भी मानव होता है और शोषित भी। अत्याचारी भी मनुष्य ही होता है और प्रताडि़त व्यक्ति भी मनुष्य होता है। फोर्ब्स सूची के अमीरों में भी मनुष्यों का नाम होता है और निर्धनतम लोगों में भी मानव ही रहेंगे। मानवतावाद की आड़ में आप पक्षधर होने से बचना चाहते हैं। अपनी राय और अपनी सहानुभूति को जाहिर नहीं करना चाहते। साहित्य में और जीवन में भी वंचित समाज के साथ खड़े नहीं होना चाहते। लेखक को विचारशील, पक्षधर की तरह पेश होना होता है, मानवाधिकार आयोग के माननीय सदस्य की तरह नहीं।
यही कारण है कि इधर वे तमाम पत्रिकाएँ, जिनमें हमारी अनेक लघु पत्रिकाएँ भी शामिल होती जा रही हैं, जिन्हें हर तरफ से विज्ञापन चाहिए, सत्ता से समझौते चाहिए, आर्थिक सहारे और अफसर-व्यापारियों की कृपा चाहिए क्योंकि उन्हें पत्रिका से कमाई भी करना है, उन सबमें पिछले रास्तों से समावेशी दृष्टि प्रवेश कर चुकी है। उनकी विचारधारा गायब हो गई है और एक उदार छबि बनती जा रही है। वामपंथ या पक्षधरता उनके स्वभाव और आकांक्षा से विलोपित हो रही है।
यह पूँजीवाद का ग्लूकोज है और धनलिप्सा है जो रिसकर उनकी शिराओं में पैठ गई है। इसलिए इधर किसी भी साहित्यिक गोष्ठी में, पत्रिकाओं में कोई विमर्श नहीं है, कोई मतभेद नहीं, कोई झगड़ा-टंटा नहीं, चिंता की कोई लकीर नहीं है, एक सहज आश्वस्ति है, मित्रभाव है, सहमति है, बेधड़क आशा है और पिकनिक है। अचरज नहीं होना चाहिए कि रचनाओं में संघर्ष, प्रतिरोध, प्रतिवाद, व्यग्रता और जिजीविषा के स्त्रोत सूखते जा रहे हैं। एक खास तरह की रूमानियत इन सबकी जगह ले रही है या ऐसी विवरणिकाएँ जो अपने मूल में सर्जनात्मकता प्रेरित नहीं हैं।
3 टिप्पणियां:
सही बात! ऐसी बातें ही कोई नहीं करता आजकल।
विचार करूँगा इस पर । ऐसा हो तो रहा है , पर इस से बचा कैसे जाय ? क्या संत बन कर ?
नये साहित्य के आभासीय रचनाकार....रच रहे छद्म का संसार...
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