शुक्रवार, 29 मई 2009

धर्म कोई निजी परिघटना नहीं है


मित्रो,
'धर्म का विकल्‍प: एक पुनर्विचार' शीर्षक लेख की यह दूसरी किश्‍त।


धर्म कोई निजी मान्यता या परिघटना नहीं है
जो कहते हैं कि धर्म एक निजी आस्था, विश्वास और मान्यता की बात है। वे दरअसल भोले हैं या चालाक। जैसे भ्रष्टाचार, ईमानदारी, बेईमानी, चरित्रहीनता, बुद्धिमानी देखने-सुनने में निजी लगती है लेकिन अंतत: वह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के बीच में ही घटित होती है और इस तरह व्यक्तियों के समूह में और पूरे समाज में। फिर धर्म तो कतई निजी बात नहीं है। जैसा कि स्पष्ट है कि वह परमसत्ता द्वारा उपदेशित, संभव समूह/अनुयायियों को संबोधित और प्राय: जन्मजात प्राप्त और थोपी हुयी अवधारणा है इसलिए उसको किसी के निजी खाते में डाल कर मुक्त हो जाना विचारहीनता है, शरारत है। यदि वह इतनी निजी है तो फिर मनुष्य को यह आजादी सभी धर्म क्यों नहीं देते कि वह वयस्क होने पर अपनी पसंद का धर्म चुन ले या कोई धर्म न चुने। बच्चे को उसकी अबोध अवस्था से ही परिजन या समाज के लोग धर्म विशेष की पद्धतियों, प्रशिक्षण एवं प्रक्रियाओं से क्यों गुजारने लगते हैं? धर्म पूरे समाज को प्रभावित कर रहा है और उसे कतई निज तक सीमित कहकर बरगलाया नहीं जा सकता।
सभ्यता विकास के क्रम में ज्ञान-दर्शन-विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ है और हो रहा है। अब प्रकृति के रहस्यपूर्ण उत्तरों के लिए धर्म के पास जाना हास्यास्पद है। वहाँ जो भी लिखा हुआ है उसमें तत्कालीन समय, समाज के ज्ञान की सीमा और अज्ञान का प्रभाव है। और सबसे बड़ी बात यह कि उसे चुनौती नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह परमसत्ता के आदेश के रूप में प्रतिष्ठित है। विज्ञान के पास जिन सवालों के सटीक और अंतिम उत्तर नहीं हैं, वहाँ विज्ञान तार्किक रूप से कुछ संभावनाओं की ओर इशारा करने में सक्षम है और कहता है कि इस दिशा में खोज की जाएगी। लेकिन धर्म सिर्फ अहंकारी रूप से सब कुछ जानने का दावा करता है जबकि जानता कुछ नहीं है। यदि धर्म इतना ही जानकार है तो वह विज्ञान की कसौटियों पर कसे जाने के लिए खुद को प्रस्तुत क्यों नहीं करता? स्वयं को आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान की सरणियों में से क्यों नहीं गुजरता?
बेट्रोल्ट ब्रेष्ट ने `गेलीलियो का जीवन´ नाटक में, धर्मग्रंथों में उिल्लखित खगोलीय घटनाओं एवं स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सटीक व्यंग्य करते हुये ठीक ही प्रश्न किया है: `क्या ईश्वर ने धर्मग्रंथ लिखने से पहले खगोलशास्त्र ध्यान से नहीं पढ़ा होगा?´ (प्रसंगवश यहाँ एक उदाहरण दिलचस्प होगा जो इस लेखक, कुछ मौलवियों और हिन्दू धर्म में आस्था रखनेवाले युवाओं के साथ, एक ट्रेन यात्रा में बातचीत के दौरान घटित हुआ। जब इन मौलवियों और हिन्दू युवाओं द्वारा बार-बार स्थापना रखी गयी कि सब कुछ कुरान और वेदों में लिख दिया गया है। मैंने उनसे प्रश्न किया कि आप सबके बच्चों ने या आपने जब स्कूल-कॉलेज की परीक्षायें दी होंगी और यह पूछे जाने पर कि पृथ्वी, संसार, मानव सभ्यता का निर्माण और विकास कैसे हुआ तब आपने अपने धर्म के अनुसार उत्तर क्यों नहीं लिखे? इस प्रश्न ने उन सबको विचलित कर दिया और वे अप्रासंगिक, असंदर्भित बहस करने लगे। थोड़ी शांति होने पर मैंने उनसे पुन: कहा कि यदि संसार बनने, सभ्यता विकसित होने के विश्वसनीय उत्तर धार्मिक ग्रंथों में ही हैं तो फिर वे ईसाइयों, हिन्दुओं, मुस्लिमों के ग्रंथों में अलग-अलग क्यों हैं और यदि विज्ञान सही है तो फिर आप सब मिलकर इन धर्मग्रंथों की अवधारणाओं को ठीक क्यों नहीं करते? पुरातनकाल से, जब सब मनुष्य साथ-साथ विकसित होते हुये इस सदी तक आ गये हैं तो उनकी उत्पत्ति और विकास के सिद्धांत, धर्म के आधार पर अलग-अलग कैसे हो सकते है?? विज्ञान-भूगोल की परीक्षाओं में आपको क्योंकर विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ता है। जाहिर है, इनका तार्किक या समाधानकारी उत्तर उनके पास न था।)
कहा जा सकता है कि धर्म को सर्वज्ञ मानने की जिद का अर्थ है- किसी स्थान पर बिजली की सुविधा और उपलब्धता होने पर भी चिमनी जलाने की जिद।

धर्म की नैतिकता
यहाँ देखना उचित होगा कि धर्म की नैतिकता, वस्तुत: नैतिकता नहीं है। क्योंकि नैतिकता के जो प्रमुख लक्षण होते हैं वे इसमें नहीं हैं। मसलन-
1. नैतिकता मनुष्यमात्र के लिए संबोधित होती है, न कि किसी समूह या खास विचारों में यकीन रखनेवाले व्यक्तियों के लिए। नैतिकता इस तरह धर्मनिरपेक्ष होती है।
2. नैतिकता समाज और मनुष्य आधारित ही हो सकती है न कि ईश्वराधारित या आत्माधारित।
3. नैतिकता एक विवेकसम्मत, सुविचारित, पारस्परिक निर्णय है, न कि कोई अलौकिक या पैगम्बरीय संदेश।
4. नैतिकता पाप-पुण्य की अवधारणा से परे होती है और हर हाल में सभी मनुष्यों (लिंग, रंग या जाति इत्यादि के भेद के बिना) पर एकसमान लागू होती है।
5. नैतिकता समाजाधारित है, मनुष्यनिर्मित है इसलिए देश-काल-परिस्थिति अनुसार आलोच्य होकर, परिवर्तनशील एवं संशोधनयोग्य है, क्योंकि समाज भी परिवर्तित होता रहता है। जबकि धर्म, नैतिकता को स्थिर, जड़ बनाता है, उसकी गतिशीलता को रोकता है।
6. धार्मिक नैतिकता प्राय: सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को नजरअंदाज करती है। (जैसे किसी भी धर्माधारित नैतिक उपदेश द्वारा `चोरी करना´ नहीं रोका जा सकता, जब तक कि समाज में एक बड़ा हिस्सा वंचितों का है। इसी तरह `सदा सत्य बोलो´ का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।)
इसीलिए दृष्टव्य है कि जैसे-जैसे नागरिक समाज एवं राष्ट्र की अवधारणा विकसित होती गयी है, धार्मिक नैतिकताओं या धर्म-सूत्रों का स्थान नागरिक-कानून लेते गये हैं। कुछ कानून तो वैश्विक स्तर पर बनाये गये हैं जिन्हें हम अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की तरह जानते हैं। क्योंकि धार्मिक सूत्र केवल धर्म विशेष के अनुयायियों पर ही लागू किये जा सकते हैं जबकि नागरिक कानून पूरे देश, किसी समाज या पूरे संसार पर। लेकिन अभी इस विषयक प्राय: हर देश में समस्याएँ बनी हुयी हैं। अनेक धार्मिक रीतियों, आदेशों और रिवाजों को समुदाय विशेषों में अहमियत मिली हुयी है और कानूनों का अनुपालन वहाँ नहीं है। जैसे, हमारे देश में ही विरासत, विवाह, तलाक, संपत्ति विवाद, धर्मस्थल विवाद, धार्मिक आयोजनों आदि अनेक मामलों में हिन्दु-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि के धर्मग्रंथों एवं उनकी धार्मिक परंपराओं को प्राथमिकता दी जाती है। आज जबकि कोई भी विकसित देश किसी जाति या धर्म विशेष से मिलकर नहीं बन सकता, इसलिए समान नागरिक कानून की महती आवश्यकता है, जो हमारी कालसापेक्ष एवं समाजसापेक्ष नैतिकताओं का निर्माण और क्रियान्वयन कर सके।

धर्म और पूँजी की शामिल हिंसा
तमाम नैतिकताओं के उलट, धर्म में हिंसा का उपदेश निहित है। अपने धर्म को फैलाने, धर्मान्तरण करने या रोकने, धर्मविरोध होने, धर्म विषयक तर्क या आलोचना करने, धर्म की रक्षा करने आदि बिंदुओं पर, धर्म हिंसा को जायज ठहराता है, हिंसा का आदेश देता है। यही नहीं, बलि आदि के महत्त्व से पशु-पक्षियों को ही नहीं, मनुष्य को भी स्वाह कर देने को प्रतििष्ठत करता है। वह इस तरह की हिंसा करनेवाले को दण्ड के नहीं, यश, कीर्ति, और कर्तव्‍य के हिस्से में रखता है। (हिन्दुओं में तो तमाम देवी-देवता हथियारधारी हैं। हर प्रमुख देवी-देवता और हर धर्म के ईश्‍वरीय अवतारों ने अनेक हत्यायें की हैं। खुद हिंसा भरे कष्‍ट उठाए हैं, काफिरों को परास्त किया है या मार गिराया है। हिंसा की ये कथायें मुग्धभाव, गौरवभाव से सुनी-सुनायी जाती हैं।) अनेक वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और विद्वानों को धर्म विषयक असहमतियों के चलते या नये आविष्कार करने के जुर्म में, धर्म के झण्डाबरदारों ने यातनायें दीं और जलाकर, जहर देकर या अन्यान्य तरीकों से मार डाला। जिस तरह पूँजी कई अपराधों और हिंसा की जनक होती है, उसी तरह धर्म भी। जिस तरह पूँजी अपने पक्ष में किये गये अपराधों के दोषियों की रक्षा करने में सक्षम हो जाती है, उसी तरह धर्म भी। इसलिए ही धर्म और पूँजी का गठजोड़ बहुत आसानी से हो जाता है। इसी मायने में धर्म एक सुगठित माफिया-प्रमुख की तरह पेश आता है। यही वजह है कि अपने को धार्मिक कहनेवाले लोग, अन्य धर्मावलंबियों के साथ की गयी हिंसा, बलात्कार, कत्ल तक को जायज ठहरा देते हैं। कश्मीर में जेहाद और हाल ही में गुजरात में घटित मुस्लिमों के नरसंहार को अपने-अपने धर्मावलंबियों द्वारा उचित ठहराया गया है। हर धर्म का इतिहास ऐसी घटनाओं से, मानवरक्त से सना हुआ है। वह अपने स्वभाव में बर्बर है, साम्राज्यवादी है, तानाशाह है। इसलिए उन्नत, आधुनिक, मानवीय समाज में धर्म को अपदस्थ किये जाने की आवश्यकता बनी रहेगी।
धर्म सामान्य जनजीवन में भी अपराधों को प्रेरित करता है: व्यभिचार, हत्या, बलात्कार, चोरी, झूठ, धोखा आदि कर्मों के लिए धर्म के पास कन्फेशन, पश्चाताप, प्रार्थना, यज्ञ, बलि, दान सहित पाप-मुक्ति की अनेक क्रियाएँ हैं। हिन्दू धर्म में स्त्री और शूद्रों के लिए तो मौत तक की सजाएँ हैं लेकिन बाकी सबके लिए उपाय हैं। तुलसी ने कहा ही है कि `समरथ को नहीं दोष गुसाईं।´ साथ ही, वह मनुष्यों के बीच लिंग, वर्ण, जाति, सामाजिक स्थिति, राजकीय स्थिति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर भेद करता है। यह विकसित, सभ्य समाज की अवधारणा के विरुद्ध है, अन्यायपूर्ण तो है ही। देवदासी, साध्वियाँ, शिष्यायें बनाने जैसी प्रथाओं के जरिये वह हर तरह के अन्‍याय और वंचना को जगह देता है, महिमामंडित करता है और धार्मिक महंतों, पुजारियों, आचार्यों आदि के उपभोग के शोषण को वैधता और गरिमा प्रदान करता है।
धर्म मनुष्य को अलौकिकता के जाल में फँसाता है। वह मानव जीवन के दुखों और मृत्यु के बाद के जीवन की ऐसी कहानी प्रचारित करता है जिसमें सत्य का लेशमात्र अंश भी नहीं है। मोक्ष, स्वर्ग, नर्क, कयामत, श्राद्ध, पुनर्जन्म, पूर्वजीवन के कर्म, पाप, पुण्य, पराशक्तियों आदि कल्पनाओं का प्रक्षेपण करता है, जनता को कर्मकाण्ड में, व्यर्थ की पूजापद्धतियों, भाग्यवाद, ज्योतिष, ग्रहों के प्रभावों, सितारों की गतियों और प्रार्थनाओं में फँसाता है। इस तरह जनता के इस लोक के वास्तविक दुखों के कारणों पर तथा दुखों-कष्टों को पैदा करनेवाले मनुष्यों एवं सामाजिक-राजनैतिक कारकों पर पर्दा डालता है। असमानता, अन्याय फैलानेवाले सत्ताधारी, पूँजीपतियों और सामंती लोगों का कवच बनता है, उन्हें बरी करता है। वह भुला देता है कि हमारे वास्तविक शत्रु भूख, गरीबी, अज्ञान, अन्याय, असमानता और बीमारियाँ आदि हैं और इनका हल इसी समाज में, इसी जीवन में है। फलस्वरूप वह समाज में बेहतरी, बदलाव और प्रगतिवादी क्रांति के बीच कुचालक (bad conductor) का काम करता है। अलौकिकता के विस्तार और अंतरंग में जाकर वह आध्यात्मिकता को पुष्ट करता है। आध्‍यात्मिकता अपार्थिवता, अभौतिकता की तरफ ले जाती है और धर्म को ही गरिमा देती है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे का मान बढ़ाने वाले हैं। रेखांकित किया जाना चाहिये कि आध्‍या‍त्‍मिकता किसी भौतिक दर्शन या वाद की तरफ यात्रा नहीं करती है। जो `धर्म या आध्‍यात्मिकता´ में से आध्‍यात्मिकता का गर्वीला चुनाव करते हैं, वे सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष तरीके से धर्म की ही ध्वजा उठाते हैं।
जारी। तीसरी किश्‍त एकाध दिन में।

बुधवार, 27 मई 2009

धर्म का विकल्‍प: एक पुनर्विचार

अपने सुधि एवं विचारशील साथियो के लिए कुछ वैचारिक लेख इस ब्‍लॉग में दे रहा हूं। ये विभिन्‍नलघु पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित हुए हैं।

सबसे पहले धर्म विषयक‍ आलेख।
प्रस्‍तुत लेख काफी बड़ा है इसलिए इसे चार किश्‍तों में दिया जा रहा है।
यह लेख वसुधा मे प्रकाशित हुआ था।

धर्म के विकल्प की परिकल्पना
चीजों को बहुत विवादास्पद न बनाया जाए और अतािर्कक हठधर्मिता न पाली जाए तो बात कुल एक पंक्ति की है: `धर्म´ का विकल्प `वैज्ञानिक दृष्टिकोण´ हो सकता है तथा `धर्म में विश्वास´ का विकल्प `मनुष्य प्रजाति की ऐतिहासिकता में विश्वास´ में मुमकिन है। लेकिन हम जानते हैं कि मामला इतना सीधा और स्वीकार्य नहीं हो सकता, इसलिए मजबूरी है कि हम `धर्म´ के विस्तार में जाएँ, इक्कीसवीं सदी तक आते-आते उसकी भूमिका, उपयोगिता और स्वभाव पर एक बार फिर दृष्टिपात करें और धर्म की प्रतिक्रियावादी, यथास्थितिवादी, अवैज्ञानिक-अंधविश्वासवादी, अविवेकी प्रकृति को भी देखें ताकि इस प्रक्रिया में `धर्म का विकल्प´ खोजे जाने का औचित्य भी रेखांकित हो सके।


क्षीण संभावना की कौंध

मध्‍यकाल से लेकर आज तक पूरे संसार में धर्म को लेकर, उसकी प्रासंगिकता, उपादेयता, भयावहता, उपकरणवादिता के संदर्भ में अनेकानेक विचार होते रहे हैं किंतु हर बार जनता के बीच `धर्म´ की विजय होती रही है। इक्कीसवीं सदी में भी इस बात की संभावना क्षीण है कि फिलहाल धर्म को किसी आधुनिक, वैज्ञानिक विचारधारा से अपदस्थ किया जा सकेगा। लेकिन यही `क्षीण संभावना´ वह खिड़की भी खोलती है जहाँ से हवा-प्रकाश आ सकता है। इसी क्षीण संभावना में वह कौंध छिपी हुयी है जो हर बुद्धिजीवी, विचारक और अन्वेषी को आकर्षित करती है और सूचना देती है कि `विकल्प का यह विचार´ दुर्निवार नहीं है।


यहाँ उन अनेक प्रगतिशील विचारकों की निराशा को याद करना भी उचित होगा जो धर्म के विकल्प का प्रश्न उठते ही `धर्म की तथाकथित अच्छाइयों´ को याद करने लगते हैं या फिर `धर्म के साथ आधुनिकता जोड़ने, संग-साथ निर्वाह करने´ के सुझाव को विकल्प बताने की कोशिश करते हैं। कहना होगा कि ऐसे लोग धर्म का विकल्प खोजना ही नहीं चाहते। दरअसल उन्होंने स्वयं ही `वैज्ञानिक दृष्टिकोण´, `भौतिकवादी दर्शन´ को इस तरह अर्जित नहीं किया होता है कि वे उसमें असंदिग्ध विश्वास जता सकें तथा गलत को `लगातार और सदैव´ गलत कह सकने का साहस और विवेक दर्शा सकें। इसलिए जब भी यह कहा जाता है कि धर्म का कोई विकल्प नहीं है तब देखना चाहिये कि कहनेवाले ने इस दिशा में सम्यक विचार किया भी है या नहीं। कहीं वह धर्म के दैत्याकार, अपरिमित और अतीव बलशाली रूप को देखकर स्तुति में तो नहीं खड़ा रह गया है। लेकिन यहाँ तक आते हुये हमें याद कर सकते हैं कि हीगेल,मार्क्‍स, बर्टेण्‍ड रसेल ने खासतौर पर और अपनी-अपनी तरह से ड्यूहरिंग, कांट, कोपरनिकस, ब्रूनो, गैलीलियो, न्यूटन, रूसो और डार्विन सहित सैंकड़ों ज्ञात-अज्ञात विचारकों-वैज्ञानिकों- साहित्यकारों ने लगातार और विपुल कार्य हमारे सामने रखा है जिससे धर्म की आलोचना, अत्यंत वैज्ञानिक एवं तािर्कक आधार पर हो सके। इनमें मार्क्‍स, बर्टेण्‍ड रसेल का विमर्श न केवल आधुनिकतम है बल्कि वह इस विमर्श को अनवरत ठोस रूप में आगे बढ़ाये जा सकने की संभावना का मार्ग भी प्रशस्त करता है।


जरूरी है कि चर्चा की जाए कि यहाँ `धर्म´ से हमारा क्या अभिप्रेत है! पहला अर्थ संस्कृत भाषा के परिप्रेक्ष्य में देखें : धर्म `धृ´ धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना। दूसरा, religion के अर्थ में देखें तो religare शब्द से निकला है जिसका अर्थ है -`बाँधना´। अथाZत यहाँ भी वही अर्थ निकलता है कि ऐसे नियमों के समुच्चय जो धारण किये जाएँ, जिनका पालन किया जाएँ अर्थात् समाज को ऐसे (नैतिक) नियमों से बाँधा जाए जिनका पालन बाध्यकारी हो और समाज का संचालन हो सके।


यहाँ तक धर्म को स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं हो सकता क्योंकि समाज में रहने के कुछ नियम तो बनाये ही जाएँगे (जैसे अभी कानून, नियम, अधिनियम बनाये जाते हैं), ताकि अराजकता न फैले, सामूहिकता सुचारु रूप में संचरित हो सके। तब जाहिर है कि इन नियमों को बदलते समाज, समय और आवश्यकताओं के अनुरूप सहज ही परिवर्तित भी किया जा सकता है। किया जाना चाहिये, क्योंकि जिन्होंने भी धर्म के बहाने ये `नियम´ बनाये, उनमें अपने युग की, उनके निजी ज्ञान की, स्वार्थ, तथा वर्चस्वांकाक्षा की दिलचिस्पयाँ भी सहज शामिल थीं। धर्म के बारे में विस्तार से उपलब्ध आलोचना और बहस से स्पष्ट है कि `धर्म´ के जरिये समाज के वर्ग-विशेष ने अपनी स्थिति निरंकुश बनायी और बहुसंख्यक लोगों पर, खासतौर पर स्त्रियों तथा कमजोर वंचितवर्ग पर शासन ही नहीं किया, उत्पीड़न भी किया। सामान्यजन उन नियमों को `बाध्यतानुसार´ मानते रहें इसलिए `धर्म´ को धीरे-धीरे अलौकिकता, ईश्वरीय आदेश या परम सत्ता से जोड़ा गया।


धर्म ईश्वर से भारित है

`धर्म´ को ईश्वर से जोड़ते ही उसकी लौकिकता प्रभावित हो जाती है, उसका `नैतिक रूप´ एवं `धारण करने योग्य चरित्र´ खंडित हो जाता है क्योंकि तब वह एक अपरिवर्तनीय, सर्वशक्तिमान आदेश के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होता है। जिस पर कोई बहस करना पाप है, अधर्म है और जो सिर्फ स्वीकार करते चले जाने के लिए है। पीढ़ी दर पीढ़ी। एक शताब्दी से गुजरते हुये दूसरी शताब्दी तक। हम यहाँ इसी `धर्म´ की बात करना चाह रहे हैं जो अलौकिक हो चुका है, ईश्वरीय हो चुका है और जाहिर है कि घनघोर अवैज्ञानिक हो चुका है। वह अपने `नैतिक नियमों´ की आकांक्षा और प्रतिज्ञा से ही भटक गया है। उसमें अब एक भी ऐसा लक्षण नहीं बचा है जो `नैतिकता´ में सहज ही होते हैं। यदि फिर भी कहें कि धर्म, धारण करने योग्य नैतिकता का संक्षेप है तो वह नैतिकता कैसे स्वीकार्य हो सकती है जो जड़ हो, अवैज्ञानिक हो, तर्कविरोधी हो, अपरिवर्तनशील हो, अविनाशी हो, अपना औचित्य समाज की सत्ता और मनुष्य की मुक्ति, गतिशीलता और स्वतंत्रता में न खोजती हो। जो सर्वोपरि हो जाना चाहती हो और जिसका अब शब्दकोषीय अर्थ है: Religion- a belief in one or more gods. एवं ब्रिटेनिका विश्वकोष के अनुसार- ^Religion is commonly regarded as consisting of a person's relation to God or to gods or spirits.

'बहुसंख्यक विवेचना और पारिभाषिक विश्लेषण के अनुसार धर्म में तीन तत्व अनिवार्य रूप से पाये जाते हैं: 1.अलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास 2.कर्मकाण्ड-पूजापद्धति-अवतार 3.धर्मग्रंथ। यद्यपि पाण्डुरंग वामन काणे ने हिन्दुओं में धर्म को धार्मिक विधियों/क्रियाओं/कर्तव्यों के रूप में ही विश्लेषित किया है। संदर्भ लें - `ऋगवेद की ऋचाओं में धर्म ज्यादातर स्थानों पर धार्मिक विधियों या धार्मिक क्रिया संस्कारों के रूप में प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद में धर्म शब्द का प्रयोग `धार्मिक क्रिया संस्कार करने से अर्जित गुण´ के अर्थ में है। एतरेय ब्राहम्ण में धर्म शब्द `सकल धार्मिक कर्तव्यों´ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।´ छान्दोग्योपनिषद, मनुस्मृति, याज्ञवलक्यस्मृति तक आते-आते धर्म के 5 स्वरूप मान लिए गये: वर्णधर्म, आश्रमधर्म, वर्णाश्रम धर्म, नैमित्तिक धर्म ओर राजादि के गुणधर्म (कर्तव्यादि)। इन्हीं आधारों पर धर्मसूत्र (आर्यजाति के सदस्यों के लिए आचार-नियम) बनाये गये, जैसे गौतमधर्मसूत्र, वसिष्ठधर्मसूत्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र आदि-इत्यादि। अर्थात् आर्यजाति के लिए `धर्म का अर्थ´ आचार-विधि का परिचायक, कर्तव्यों, बंधनों का द्योतक है। (धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग-1, लेखक: भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे।)

यहाँ हम इन सूत्रों-स्मृतियों को `नियमों´ का दर्जा दे भी दें तब भी आज विचारशील एवं बहुसंख्यक हिन्दुओं/आर्यजाति को मनुस्मृति सहित तमाम स्मृतियों और धर्मसूत्रों के ये नियम मान्य नहीं हैं, न ही हो सकते हैं क्योंकि इनमें वर्ण के आधार पर उच्चवर्णों का भारी पक्ष लिया गया है तथा शूद्रों (दलितों) और स्त्रियों को वंशानुगत रूप से जन्मना ही प्रताड़ित कर दिया गया है। इनमें अनेकानेक मानवविरोधी लक्षण विद्यमान हैंं। यहाँ इसके विवरण में न जाते हुये यह कहना पर्याप्त होगा कि `धर्म´ के नाम पर ये आचार-नियम ब्राहम्णों/उच्चवर्णों की तानाशाही और वर्चस्व बनाये रखने की संहिताओं के अलावा कुछ नहींं हैं और इन्हें कतई नैतिक-नियम नहीं कहा जा सकता क्योंकि अपनी प्रकृति और आकांक्षा में इनसे अधिक अनैतिक कुछ नहीं हो सकता। आधुनिक विचारकों ने, राजनीतिज्ञों ने इन वैदिक नियमों का खुला विरोध भी इसलिए किया है क्योंकि ये सामाजिक अन्याय के जनक और पोषक हैं।
यहाँ डॉ. वामन काणे इस पक्ष की उपेक्षा कर देते हैं कि इन आचार-संहिताओं में तमाम कर्मकाण्डी पद्धतियों का समावेश है और इन्हें भी अंतत: ईश्वरीय आदेशों और भगवत् इच्छा से जोड़ा गया था ताकि उनका पालन कराने में कोई व्यवहारिक कठिनाई न हो तथा राज्य (state) को नागरिक-विवेक की जगह पुरोहितीय सुविधा से चलाया जा सके एवं अभिजात्य और शासकवर्ग को चुनौती न दी जा सके।
इस तरह हमारे सामने संसार का जो भी `धर्म´ उपस्थित है वह ईश्वर या अलौकिकता और परमसत्ता से भारित (loaded) है। इसी ओट में वह नियंत्रक, परम, निरंकुश और शक्तिमान होता है। यहाँ एँगेल्स को याद करें तो `हर प्रकार का धर्म, मनुष्यों के दिमागों में उन बाह्य शक्तियों के काल्पनिक प्रतिबिंब के अलावा कुछ नहीं है जो उनके दैनिक जीवन को शासित करती हैं। इस प्रतिबिंब में पार्थिव शक्तियाँ, अलौकिक शक्तियों का रूप धारण कर लेती हैं।´ अस्तु अब कोई भी धर्म मूल अर्थों (अर्थात धारण करने योग्य आचरण) में `धर्म´ नहीं है क्योंकि वह `नागरिक या मानवमात्र के लिए´ नैतिक नियमों को प्रस्तावित नहीं करता, अपितु वह अपने अनुयायी समाज के लिए महज धार्मिक क्रियाओं, अंधविश्वासों, प्रदर्शनों, धार्मिक संस्कारों एवं कर्मकाण्डों की रक्षा करने में जुटा हुआ है और अलौकिक सत्ता से `लोडेड´ है। हमारा आशय इसी धर्म से है। यहाँ, जहाँ भी `धर्म´ शब्द का प्रयोग है, वह धर्म के इसी आशय और संदर्भ में है। `धर्म´ के इसी स्वरूप ने आज प्रत्येक मानवसमाज को नानाप्रकार के रोगों से घेरकर रखा है और सत्ताधारी, पूँजीपति, अधिनायकवादी, धार्मिक नेतृत्व कर रहे लोग इस धर्म का उपयोग जनता को तमाम अंधविश्वासों में बनाये रखकर, उसके शोषण में करते चले आ रहे हैं।
धर्म के खिलाफ होने, उसे अपदस्थ करने या उसका विकल्प खोजने के प्रयास हेतु अनेक कारण हैं। जैसे वह पिछड़े, सामंती समाज का अग्रदूत और सखा है, निरंकुश है, आलोचना के विरुद्ध है, यथास्थितिवादी, अवैज्ञानिक, अंधविश्वासी है, वह ईश्वर-भारित होकर मानव समाज को खास तरह से अशिक्षित, नियतिवादी और मनुष्यविरोधी बनाये रखने में अपनी अग्रणी भूमिका निबाहता है। (यह किस हद तक मानवविरोधी बनाता है इसके लिए केवल यह विख्यात तथ्य पर्याप्त होगा कि संसार में तमाम युद्धों में जितने लोग मारे गये हैं, उससे कई गुना अधिक मनुष्य धर्मयुद्धों या धार्मिक विद्वेष के झगड़ों-फसादों में मारे गये हैं।) लेकिन धर्म के खिलाफ, जैसा कि हम जानते हैं, महत्वपूर्ण आरोप यह है कि वह समतावादी, न्यायवादी, मानवतावादी, लोकतंत्रवादी और शोषणरहित समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। यह एक अकेला आरोप ही इतना संगीन है जिसका सुस्पष्ट निष्कर्ष है कि `धर्म´ के रहते मानव की सच्ची मुक्ति संभव नहीं। मनुष्य की स्वतंत्रता मुमकिन नहीं।
`धर्म´ अंतत: ईश्वरीय या परमसत्ता की संरचना, आदेश, अपेक्षित नैतिकता, उपदेश आदि के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है। धर्म में जो भी संशोधन हुये, (जैसे हिन्दू धर्म में बुद्ध या जैन), वे भी कालांतर में ईश्वर या अवतारों की ओर से किये गये संशोधन मान लिए गये और उनका हश्र भी वही हुआ जो प्रारूपिक (typical) `धर्मों´ का हो सकता है। (हालाँकि वामन काणे सहित अन्य विद्वानों के अध्ययन को केंद्र में रखकर देख सकते हैं कि हिन्दू धर्म अपने प्रारंभ में ईश्वराधारित नहीं था बल्कि समाज पर नियंत्रण करने के प्रभुत्वशाली (ब्राह्मणवगाZदि) लोगों द्वारा बनायी गयी आचरणपद्धति थी जो इस वर्ग को असीम ताकत देती थी, निरंकुश बनाती थी और आमबहुजन समाज को, स्त्रियों को, यंत्रणापूर्ण, दासतापूर्ण जीवन की ओर धकेलती थी। एक तरह से यह राजकीय स्तर की, उत्पीड़न को मान्यता देती हुयी समानांतर शासन व्यवस्था थी। लेकिन भविष्य में इसका बने रहना तब ही संभव था जबकि इसे ईश्वरीय आदेश से जोड़ दिया जाएँ ऐसा ही किया गया, खासतौर पर जब बौद्ध धर्म ने इसमें संशोधन और तत्संबंधी प्रतिरोध किया। तब श्रीमद्भगवत् गीता प्रकाश में आती है और वह आज के हिन्दू धर्म का मार्गदशीZ धार्मिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ सीधा विष्णुअवतार कृष्ण के मुख से निसृत हुआ है और इसलिए ईश्वरीय आदेश है। अत: अब यह कहना कि हिन्दू धर्म सिर्फ एक जीवनप्रणाली है अथवा आचरण प्रणाली है, एक अधूरा, पुराना और गलत बयान है।)
अतएव हिन्दू धर्म सहित, संसार के प्रत्येक धर्म में न केवल ईश्वर या अवतार या पैगम्बर की उपस्थिति एक प्रमुख तत्व है बल्कि वह इसी कारण अपरिवर्तनीय भी है। उसमें किसी तरह का संशोधन, पहली बात तो लगभग नामुमकिन है, क्योंकि उसके अनुयायी ऐसा करने ही नहीं देंगे और यदि किसी तरह वह संशोधन हुआ भी तो एक नया धर्म सामने आ जाएगा, जिसमें संशोधनकर्ता को पैगम्बर या अवतार की मान्यता मिलेगी और इस तरह वह भी उतनी ही समस्याओं तथा बुराइयों से लैस होगा, जितना कोई भी धर्म हो सकता है। विस्तार से यह बात इसलिए कि धर्म में परिवर्तन या सुधार करने की बात बेमानी है, ढोंग है, नासमझी है। धर्म का निषेध ही किया जाना चाहिये और उसकी जगह व्यापक, विवेक सम्मत, तािर्कक, न्यायपूर्ण दृष्टि को मिलना चाहिये। कह सकते हैं कि यह दृष्टि `वैज्ञानिक दृष्टिकोण´ के रूप में उपलब्ध है।

शेष अगली किश्‍तों में

आध्या‍त्मिकता का खेल

हमारे साथी रचनाकारों , संयोग से दोनों के नाम अशोक पांडे हैं, के ब्‍लॉग्‍स यथा ' कबाड़खाना' और 'हमकलम' पर भी जावेद अख्‍तर का यह संभाषण प्रस्‍तुत किया गया है। इसे अनेक साथियों, पाठकों तक पहुंचना चाहिए, इस इरादे से यह वक्‍तव्‍य यहां भी दिया जा रहा है। वैचारिक समझ और स्‍पष्‍टता हो तो वह बौद्धिक साहस भी आ जाता है कि आप आध्‍या‍त्मिकता का व्‍यवसाय करनेवालों की उपस्थिति में भी यह सब कह सकते हैं।

इस क्रम में बाद में मैं 'वसुधा' में प्रकाशित अपने एक लेख 'धर्म का विकल्‍प' के अंश भी क्रमश: देने का प्रयत्‍न करूंगा।

(जावेद अख्तर के इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हलो ऑर होक्स’ सत्र में दिए गए व्याख्यान का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)

मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था. कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएं नहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!

एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है. मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.

मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आया हूं.

इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :

”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.

काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.

मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..

”रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं. मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं.

जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते.

इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं.

इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं. अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि की कृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं. तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है. तो फिर इस शब्द - आध्यात्मिकता - पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?

पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जब इंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायोडिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है. लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जो कॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है. ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग? ....नहीं.अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिनवह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा... और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?

तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं. मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसल धार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है? जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्न हो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहता है कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है.

एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुता है, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगे भी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य! और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकी सम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”. आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है. ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है. आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता.

एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है. ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है. मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एक सीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है. इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भले हो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपने हिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.

आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिन एक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए. और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान और सत्ता की स्वीकृति हो.

लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं. मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.धन्यवाद.