मंगलवार, 29 जनवरी 2013

पाठ्य पुस्‍तकें और राष्‍ट्रीय कविता


असुविधा ब्‍लॉग पर यह आलेख कवि अशोक कुमार पांडे ने दिया था।
यहॉं अपने ब्‍लॉग पर महज दस्‍तावेजीकरण के लिए और
उन साथियों के लिए जिन्‍होंने इसे पूर्व में नहीं पढ़ा है।

पाठ्य पुस्तकें और राष्ट्रीय कविता

(एक)
‘राष्ट्रीय कविता’ के बारे में शिक्षा प्रणाली के समकालीन सनातन स्वरूप और पाठ्य पुस्तकों के जरिए, एक विशिष्ट लेकिन संकीर्ण समझ प्रदान की जाती रही है। इस पूरी समझ में राष्ट्रवाद का उठान और उससे राजनैतिक लाभ लेने की नीयत हमेशा ही शामिल रही है। दरअसल, ‘राष्ट्रीय कविता’ की अनुदार व्याख्या और परिभाषाओं ने आजादी आंदोलन के दौरान रची गई तत्कालीन प्रासंगिक और अंग्रेज शासन के खिलाफ लिखी कविता को कुछ इस तरह अनवरत विराटता और औचित्य प्रदान किया गया मानो एक खास तरह की कविता ही राष्ट्रीय कोटि की होती है। बाद में पाकिस्तान और चीन से हुए युद्धों और फिर कारगिल संघर्ष ने जैसे बार-बार वातावरण बनाकर पुष्टि की कि सीमा पर लड़ रहे जवानों की यशोगाथा कहनेवाली, उनके संकटों का बयान, उनका हौसला बढ़ानेवाली, भौगोलिक सीमा पर आँच न आने देने की कसमें खानेवाली कविता ही राष्ट्रीय कविता है। यही वह अधूरी समझ है जो स्थापित करना चाहती है कि भौगोलिक सीमाएँ ही राष्ट्र बनाती हैं, उसके भीतर रह रहा समाज राष्ट्र नहीं है।
जैसे राष्ट्र सिर्फ सीमाओं से बनता है, किसी मनुष्य समाज से नहीं।

(दो)
धर्माधारित राजनैतिक पार्टियों के लिए तो राष्ट्रवाद एक शानदार ‘लांचिंग स्टेशन’ है। इस समझ को व्यापक करते हुए फिर हर चीज का वर्गीकरण किया गया। एक राष्ट्रीय। और दूसरा जिसे तथाकथित अर्थ में राष्ट्रीय न कहा जा सके। कविता में भी यही हुआ! इस ‘राष्ट्रीय कविता’ को कविता और कला और साहित्य की कसौटी पर कभी कसा ही नहीं गया। इस समझ के साथ देखा जाये तो फिर कबीर, तुलसी, मीर, गालिब राष्ट्रीय कविता लिख ही नहीं रहे थे और निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय से लेकर चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल और अमित उपमन्यु तक तमाम कवियों की कविताएँ राष्ट्रीय कोटि में नहीं आ सकेंगी। जबकि वास्तविकता यह है कि तमाम कवि कहीं अधिक गहरे अर्थ में राष्ट्रीय कविता लिखते रहे हैं। समूची समकालीन कविता व्यापक रूप से राष्ट्रीय कविता है क्योंकि वह पूरे समाज, जनपद और आत्म को भी लक्ष्य करती है। बेहतरी का स्वप्न देखती है और इसके लिए वह धरती पर खींची गईं रेखाओं का गुणगान अथवा कल्पित गौरवशाली अतीत और जोश का वर्णन करना कतई जरूरी नहीं समझती। वह इन सबसे पार जाती है। दरअसल, हमारी राष्ट्र की समझ जब एक सामूहिक मनुष्य समाज के आधार पर, उसकी मुश्किलों और उपलब्धियों और चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए बनेगी तो कई संकटों का हल आसान होगा।

(तीन)
लेकिन यह समझ बनना तब कुछ आसान होगा जब कविता की जातीय श्रेष्ठता और योद्धाओं के गुणगान या प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं के यशोगान के शब्द-समूहों को कविता की विशेष कोटि में तबदील किए जाने का उपक्रम कुछ थमे। अभी भी हालत यह है कि पाठ्य पुस्तकों और अन्यथा शिक्षा में बच्चों को ‘देशभक्तिपूर्ण कविता’ या ‘राष्ट्रीय कविता’ के नाम से एक खास तरह की कविता का परिचय कराया जाता है। फिर सहज ही मान लिया जाता है कि समकालीन राजनीति, अन्याय, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, मीडिया, प्रदूषण, प्रशासन, शोषण या घर-परिवार की वृहत्तर मुश्किलों और हमारे समय की वास्तविकताओं को लक्ष्य कर लिखी गई कविता ‘देशभक्ति रहित’ है या ‘गैर राष्ट्रीय’ है। मानो राष्ट्र के दायरे में समाज की ये बातें और समाज के ये लोग आते ही नहीं हैं। इसका सीधा अर्थ यही निकलेगा कि राष्ट्रीय कविता का काम सामाजिक विसंगतियों, अभावों, दुरवस्थाओं को विषय बनाने की बजाय सैनिकों की, स्मारकों की, सत्ता की और राष्ट्रीय प्रतीकों की प्रशंसा करना है। तब तो निश्चित ही ‘राष्ट्रीय कविता’ की यह एक सामंती समझ है जिसका पर्दाफाश किया जाना जरूरी लगता है। जबकि ऐसी कविता महज विरुदावली तक सीमित रह सकने को अभिशप्त है।

(चार)
पाठ्य पुस्तकों, तथाकथित राष्ट्रीय फिल्मी गानों से प्रारंभ होनेवाली यह समझ हमें राष्ट्र की एक गलत और अधूरी अवधारणा तक पहुँचाती है, इससे राष्ट्रवाद के झाँसे में आना कुछ आसान हो जाता है। फिर देश ‘माँ’ की जगह ले लेता है और आस्था का ऐसा केंद्र बन जाता है जिसके बारे में, जिसके प्रतीकों के बारे में, सेनाओं के बारे में कोई भी तार्किक बातचीत या ऐतिहासिक समझ के साथ बात करना लगभग देशद्रोह जैसा प्रतीत हो सकता है। इसी समझ का नवीनीकरण आजादी के बाद समय-समय पर आकाशवाणी, दूरदर्शन, मीडिया के अन्य स्वरूपों और शासकीय प्रतिष्ठानों द्वारा साल में कम से कम दो बार तो किया ही जाता है। इसीके चलते राष्ट्र को एक शाश्वत प्रकृति का तथ्य मान लिया जाता है और महज पचास या सौ या दो सौ साल पुरानी सीमाओं की हम याद भी नहीं करते हैं और मानते हैं कि ये जो वर्तमान राष्ट्र की भौगोलिक सीमाएँ हैं, वे ही स्थायी हैं और रक्षा योग्य हैं। इन्हीं वजहों से ‘कविता की राष्ट्रीयता’ और ‘कविता की सामाजिकता’ की समझ गड़बड़ होते-होते यहाँ तक आ गई है कि जो कविता राज्य की सीमाओं की, नीतियों की, युद्धोन्मादी हिंसा की, तत्संबंधी नीतियों, पूर्वज राजनेताओं, युद्धकाल में सेनाओं की प्रशंसा करे वही राष्ट्रीय कविता है। फिल्मों और गीतकारों ने इस समझ का खासा व्यावसायिक उपयोग भी किया है।


(पाँच)
अर्थात सुभाष चंद्र बोस, भगतसिंह, महात्मा गाँधी या जवाहरलाल नेहरू पर लिखी कविता राष्ट्रीय होगी और रवीन्द्रनाथ टैगोर, दिलीप कुमार, पीटी ऊषा या मदर टेरेसा पर लिखी कविता राष्ट्रीय नहीं होगी। भाखड़ा नंगल बाँध पर लिखी कविता राष्ट्रीय होगी लेकिन नर्मदा बाँध की समस्याओं या विस्थापन को लेकर लिखी कविता राष्ट्रीय नहीं होगी। फिर यह भी सहज है कि खेल पर राष्ट्रीय कविता लिखना है तो हाॅकी पर लिखें और पक्षी चुनना है तो मोर को चुनें। अंततः यह समझ वहाँ जाएगी ही कि राजनैतिक या युद्ध के मोर्चे पर काम कर रहे हैं तो राष्ट्रीय काम हैं लेकिन साहित्य, समाज, संस्कृति, विज्ञान या अन्य मोर्चे पर किए जानेवाले काम राष्ट्रीय नहीं हैं। तब तो थल सेनाध्यक्ष को ही सर्वाधिक ‘राष्ट्रीय कार्य’ कर रहा व्यक्ति घोषित किया जाना उचित होगा। देश के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक, न्यायाधीश, डाॅक्टर, इंजीनियर लेखक, उद्योगपति या समाजसेवी के काम उस तरह राष्ट्रीय नहीं हैं। फिर उस बेचारे की क्या बिसात जो मिस्त्री है, कंडक्टर है, दुकानदार है या फेरी लगाकर सामान बेच रहा है।

(छह)
किसी भी देश में धीरे-धीरे यह राष्ट्रीय समझ, बहुसंख्यक जातीयता की समझ में तबदील हो जाती है। जैसे हमारे यहाँ ‘हिन्दुत्व’ को ही ‘राष्ट्रीयता’ की समझ में संयोजित किया जा रहा है। यही समझ अंधे राष्ट्रवाद की तरफ ले जाती है। यदि मान ही लिया जाए कि राष्ट्र मूलतः सिर्फ एक भौगोलिक सीमा है तो फिर जाहिर है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ गहरे अर्थों में एक राष्ट्रविरोधी नारा है या फिर एक साम्राज्यवादी स्वप्न। इस समझ के आधार पर फिर उचित है कि एक सैनिक की बेईमानी तो देशद्रोह मानी जाए लेकिन एक उद्योगपति, राजनेता, संस्सकृतिकर्मी या प्रशासक की बेईमानी को देशद्रोह न माना जाए। तात्पर्य यह कि एक गलत समझ को सही मान लेने से सारी सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक-नैतिक परिभाषाएँ भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो जाएँगी। इस राष्ट्रीय समझ के कारण ही कह दिया जाता है कि माक्र्सवादी विचार से प्रभावित भारतीय लोग देशभक्त नहीं हैं क्योंकि वे एक विदेशी विचारक से संचालित हैं। तब कहना प्रासंगिक होगा कि श्रीलंका या जापान के लगभग सभी निवासी देशद्रोही हैं क्योंकि वे एक विदेशी विचारक ‘महात्मा बुद्ध’ से प्रेरित होकर धार्मिक हैं। रिचर्ड एटनबरो अपने देश के प्रति द्रोही हैं कि उन्होंने तमाम देशज महापुरुषों का त्याग करते हुए गाँधी पर फिल्म बनाई। और कम्बोडिया, इंडोनेशिया वगैरह में रामलीला आयोजित करनेवाले और वे जो वहाँ रहकर महावीर, नानक या विवेकानंद आदि के विचारों के समर्थक हैं लेकिन भारतीय नहीं हैं, उन्हें भी उनके देशों द्वारा राष्ट्रविरोधी मान लिया जाना चाहिए। जाहिर है कि यह समझ पर्याप्त अराजक, अपरिपक्व और मानव विरोधी है। ज्ञान विरोधी तो है ही।
चिकित्सा, कंप्यूटर और यांत्रिकी विज्ञान की तमाम अवधारणाएँ तत्काल स्वीकार करते समय भी फिर यही विचार आना चाहिए कि ये तो अन्य राष्ट्रों से प्रसूत हुई हैं और इन्हें अपनाकर राष्ट्रविरोधी हो जाएँगे।

(सात)
कहना यह है कि सच्ची कविता अपने स्त्रोत से, उद्गम से और प्रस्थान से ही मनुष्य और समाज सापेक्ष होती है, जितनी स्थानीय होती है उतनी है वैश्विक होती है और वही उसकी सच्ची राष्ट्रीयता है। उसकी अलग से कोई ‘राष्ट्रीय’ कोटि नहीं होगी क्योंकि राष्ट्र मूलतः एक मनुष्य समाज होता है। इसलिए राष्ट्रीय कविता का अर्थ सुजलाम सुफलाम तक या वीरों की स्तुतिगान तक सीमित नहीं किया जा सकता। ऐसी कविता भी यदि कविता है तो सिर्फ कविता ही होगी। जातिप्रथा, रंग भेद, लिंग भेद, कुरीतियों, अंधवश्विासों, कूपमण्डूपताओं, सांप्रदायिकता और असमानताओं पर लिखी गई कविताएँ भी राष्ट्र सापेक्ष और राष्ट्रीय होती हैं यदि वे एक बेहतर, मानवीय, स्वस्थ, वैज्ञानिक और अन्याय रहित समाज के पक्ष में खड़ी होती हैं, अपने राष्ट्र के भीतर-बाहर उठनेवाले राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों और हलचलों से टकराती हैं, उनसे प्रतिकृत होती हैं और तथाकथित ‘राष्ट्रकवियों’ की कविता से अलग कहीं अधिक वास्तविक सवालों को उठाती हैं या उन पर विमर्श संभव करती हैं। अपनी काव्यकला के साथ और संवेदना और भाषा की शक्तियों के साथ। या यों ही अपनी गहन व्याकुल प्रखरता के साथ।
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मंगलवार, 8 जनवरी 2013

जीवन का चुनाव

पुष्‍यमित्र की टिप्‍पणी और उनका एक अनुवाद- संपादित रूप

मेरे कौमार्य से कीमती मेरा जीवन है : सोहेला अब्दुलाली
वाया-पुष्यमित्र


किसी भी व्यक्ति की यौन स्वतंत्रता के अतिक्रमण को एक सर्वाधिक घृणित अपराध के रूप में देखा जाना चाहिये, और उसके लिए कड़ी से कड़ी सजा होनी ही चाहिये. मगर साथ ही इस क्षति के आकलन पर पुनर्विचार भी करने की जरूरत है. क्योंकि यह पुनर्विचार उसके लिए अपराध का सामना करते वक्त और उसके बाद के जीवन के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. अधिकांश पीड़ित महिलाएं विरोध करते वक्त बड़ा शारिरिक नुकसान झेलती हैं, जैसा कि इस केस में हमने देखा कि उस युवती को जान तक गंवानी पड़ी. कई पीड़ित बाद में जान दे देती हैं, क्योंकि उनकी और समाज की नजर में बलात्कार का अर्थ उनकी इज्जत का चला जाना है. और इसके बाद जीना निर्रथक होता है. मगर क्या सचमुच यह इतना निर्रथक है. इस दुनिया में स्टीफन हाकिंग्स जैसा शारिरिक तौर पर अक्षम व्यक्ति अपनी हर महत्वाकांक्षा की पूर्ति करते हुए जी सकता है, वहां एक दफा किसी यौन कुंठित अपराधी के हमले के बाद कोई भला ऐसा क्या हो जाता है कि कोई व्यक्ति जीने लायक नहीं बचता है.

इज्जत, यह जो शब्द है. बहुत पुराना और सर्वव्यापी शब्द है. हमारी दुनिया में बलात्कार ही एकमात्र ऐसा अपराध है जिसमें दोषी की इज्जत का तो पता नहीं, पीड़ित की इज्जत निश्चित तौर पर चली जाती है. देश में चल रहे महिला आंदोलनों ने कभी इस सवाल को बहुत गंभीरता से नहीं देखा, आज भी वे बलात्कार के बाद पीड़ित को हुई मानसिक क्षति को काफी बड़ा मानकर उसके लिए सजा की मात्रा बढ़ाने की मांग कर रही हैं. मगर वे कतई यह नहीं सोचतीं कि इस अपराध को सबसे पहले इज्जत के ठप्पे से मुक्त करने की जरूरत है. यह जो इज्जत इस अपराध के बाद जाती है, वह किसकी है? उस औरत की कतई नहीं जो शादी के बाद इस इज्जत को अपने पति को समर्पित कर देती है. यह इज्जत उस पुरुष की है, जिसे समाज पिता-भाई और पति के तौर पर स्त्री का स्वामी समझता है. इस समाज में औरतों का यौन संक्रमण उसकी इज्जत से जुड़ा है, जबकि पुरुषों का यौन संक्रमण हाल-हाल तक घर की औरतों द्वारा ही नजरअंदाज कर दिया जाता रहा है.

सबसे पहले तो इज्जत के इस दोहरे मानदंड को खत्म करने की जरूरत है. रेप एक हादसा है इससे अगर किसी की इज्जत जाने की संभावना होनी चाहिये तो उस रेपिस्ट की जो किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार करता है. ठीक उसी तरह जैसे एक चोर, एक पाकेटमार, एक घोटालेबाज की इज्जत चली जाती है. एक बार यह तथ्य स्थापित हो जाये तो फिर स्त्री जाति के लिए बलात्कार के हमले का सामना और उसके बाद का जीवन आसान हो जायेगा. फिर स्त्रियां यौन हमलों का सामना दृढ़ता से कर पायेंगी.

अब आपके सामने पेश है सोहेला का यह आलेखः

“मैं अपनी जिंदगी के लिए लड़ी... और जीत हासिल की”-सोहेला अब्दुलाली


तीन साल पहले मेरा गैंगरेप हुआ था, उस वक्त मैं 17 साल की थी. मेरा नाम और मेरी तसवीर इस आलेख के साथ प्रकाशित हुए हैं. 1983 में मानुशी पत्रिका में. मैं बंबई में पैदा हुई और आजकल यूएसए में पढ़ाई कर रही हूं. मैं बलात्कार पर शोधपत्र लिख रही हूं और दो हफ्ते पहले शोध करने घर आयी हूं. हालांकि तीन साल पहले भी जब मेरे साथ यह हुआ था, मैं रेप, रेप के अभियुक्तों और पीड़ितों को लेकर लोगों में फैली गलत धारणाओं के बारे में समझती थी. मुझे उस ग्रंथि का भी पता था जो पीड़ित के मन के साथ जुड़ जाती हैं. लोग बार-बार यह संकेत देते हैं कि अमूल्य कौमार्य को खोने से कहीं बेहतर मौत है. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. मेरा जीवन मेरे लिए सबसे कीमती है.

मैंने महसूस किया है कि कई महिलाएं इस ग्रंथि के कारण चुप्पी साध लेती हैं, मगर अपने मौन के कारण उन्हें अपार वेदना का सामना करना पड़ता है. पुरुष पीड़ितों को कई वजहों से दोषी ठोहराते हैं और हैरत की बात तो यह है कि कई दफा महिलाएं भी पीड़ितों को ही दोषी ठहराती हैं, संभवतः आंतरिक पितृसत्तात्मक मूल्यों के कारण, संभवतः खुद को ऐसी भीषण संभावनाओं से बचाये रखने के लिए.

यह घटना जुलाई की एक गर्म शाम की घटी. उस साल महिलाओं का समूह रेप के खिलाफ कानून में संशोधन की मांग कर रहा था. मैं अपने दोस्त राशिद के साथ थी. हम लोग घूमने निकले थे और बंबई की उपनगरी चेंबूर स्थित अपने घर से करीब डेढ़ मील दूर एक पहाड़ी के पीछे पहुंच गये थे और वहां बैठे थे. हम पर चार लोगों ने हमला किया, वे लोग दरांती से लैस थे. उन्होंने हमारे साथ मारपीट की, पहाड़ी पर चढ़ने के लिए मजबूर किया और वहां हमें दो घंटे तक बिठाये रखा. हमें शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया गया, और जैसे ही अंधेरा गहराया, हमें अलग कर दिया गया और अठ्ठाहस करते हुए उन्होंने राशिद को बंधक बनाकर मेरे साथ रेप किया. हममें से कोई प्रतिरोध करता तो दूसरे को वे चोट पहुंचाते. यह एक प्रभावी तरीका था.

वे तय नहीं कर पा रहे थे कि वे हमारी हत्या करें या नहीं. हमें अपने दम भर वह सब कुछ किया जिससे हम जिंदा बच जायें. मेरा जिंदा बचना था और वह हर चीज से अधिक महत्वपूर्ण था. मैं पहले उन लोगों का शारीरिक रूप से प्रतिरोध किया और जब मुझे गिरा दिया गया तो मैं शब्दों से प्रतिरोध करने लगी. गुस्से और चीखने-चिल्लाने का कोई असर नहीं हो रहा था, इसलिए मैंने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, मैं उन्हें प्रेम, करुणा और मानवता के लिए प्रेरित करने लगी, क्योंकि जिस तरह मैं इंसान थी, वे भी तो इंसान ही थे. इसके बाद उनका रवैया नर्म पड़ने लगा, खास तौर पर उनका जो उस वक्त मेरे साथ बलात्कार नहीं कर रहे थे. मैंने उनमें से एक से कहा कि अगर मुझे और राशिद को जिंदा छोड़ दिया गया तो मैं अगले दिन उनसे मिलने आउंगी. हालांकि इन शब्दों के बदले मुझे कहीं अधिक भुगतना पड़ा, मगर दो जिंदगियां दांव पर थीं. यही एकमात्र तरीका था कि मैं वहां से लौट पाती और अगली दफा खुद को रेप से बचा पाती.

जिसे बरसों की पीड़ा कहा जा सकता है उसे झेलने के बाद(मुझे लगता है मेरा 10 बार बलात्कार किया गया और कुछ देर बाद मैं यह समझना भूल गयी कि क्या हो रहा है), हमें जाने दिया गया. जाते वक्त उन लोगों ने हमें एक नैतिक उपदेश के साथ विदा किया कि मेरा एक लड़के के साथ इस तरह घूमना अनैतिक था. इस बात ने उन्हें सबसे अधिक नाराज किया था. उन्होंने ऐसा मेरे हित में ही किया था, वे मुझे एक पाठ पढ़ाना चाहते थे. यह बड़ी कट्टर किस्म की नैतिकता थी. उन्होंने हमें पहाड़ के नीचे छोड़ दिया और हम लड़खड़ाते हुए अंधेरी सड़क पर चलते रहते, एक-दूसरे पर टगते हुए और धीरे-धीरे चलते हुए. वे कुछ देर तक हमारा पीछा करते रहे, दरांती हिलाते हुए, और वह संभवतः सबसे बुरा पहलू था कि भागना इतना आसान था मगर मौत हमारे उपर ठहल रही थी. अंततः हम घर पहुंचे, टूटे हुए, क्षत-विक्षत, चूर-चूर. यह बच कर आने का एक अतुलनीय अनुभव था, अपने जीवन के लिए मोलभाव करना, हर शब्द तोलकर बोलना क्योंकि हम उन्हें नाराज करने की कीमत जानते थे, दरांती का वार कभी भी हमारे जीवन को समाप्त कर सकती थी. हमारी हड्डियों और हमारी आंखों में राहत दौड़ रही थी और हम ऐतिहासिक विलाप के साथ ढेर हो गये.

मैंने बलात्कारियों से वादा किया था कि मैं इस बात को किसी और से नहीं बताउंगी, मगर घर पहुंचते ही सबसे पहले मैंने अपने पिता से कहा कि वे पुलिस को बुलाएं. वे इस बात को सुनकर चिंतित हो गये. मैं परेशान थी कि किसी और को उस अनुभव से नहीं गुजरना पड़े जिससे मुझे गुजरना पड़ा था. पुलिस असंवेदनशील थी, घृणित भी और वह किसी तरह मुझे दोषी साबित करने पर तुली थी. जब मैंने कहा कि मेरे साथ क्या हुआ, तो मैंने सीधे-सीधे कह डाला और इस बात को उन्होंने मुद्दा बना लिया कि अपने साथ हुए इस हादसे को बताने में मैं शर्मा नहीं रही थी. जब उन्होंने कहा कि इस बात का प्रचार हो जायेगा तो मैंने कहा, कोई बात नहीं. मैं इमानदारी से कभी यह सोच नहीं सकी थी कि मुझे या राशिद को दोषी माना जायेगा. जब उन्होंने कहा कि मुझे मेरी सुरक्षा किशोर रिमांड होम भेजा जायेगा. मुझे बलात्कारियों और दलालों के बीच रहना होगा ताकि मुझ पर हमला करने वालों को न्याय के सामने लाया जा सके.

बहुत जल्द मैंने समझ लिया कि इस कानून व्यवस्था के तहत महिलाओं के लिए न्याय मुमकिन नहीं है. जब उन्होंने पूछा कि हम पहाड़ी के पीछे क्या कर रहे थे तो मैं क्रुद्ध हो गयी. जब उन्होंने राशिद से पूछा कि वह क्यों निष्क्रिय हो गया, तो मैं चीख पड़ी. क्या वे यह नहीं समझते थे कि राशिद का प्रतिरोध मेरे लिए और पीड़ा का कारण बन सकता था. वे ऐसे सवाल क्यों पूछते थे कि मैंने कैसे कपड़े पहने थे, राशिद के शरीर पर कोई चोट का निशान क्यों नहीं है (पेट पर लगातार हमले के कारण उसे इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी), मैं दुख और निराशा में डूबने लगी, और मेरे पिता ने उन्हें घर से बाहर भगा दिया यह कहते हुए कि वे उनके बारे में क्या सोचते हैं. यह वह सहायता थी जो मुझे पुलिस से मिली. पुलिस ने बयान दर्ज किया कि हम टहलने गये थे और लौटते वक्त देर हो गयी.

उस बात के तीन साल हो गये हैं, मगर ऐसा एक दिन भी नहीं बीता जब मुझे इस बात ने परेशान नहीं किया कि उस दिन मेरे साथ क्या हुआ. असुरक्षा, भय, गुस्सा, निस्सहायपन- मैं उन सब से लड़ती रही. कई दफा, जब मैं सड़क पर चलती थी और अपने पीछे कोई पदचाप सुनायी पड़ती तो मैं पसीने-पसीने होकर पीछे देखती और एक चीख मेरे होठों पर आकर ठहर जाती. मैं दोस्ताना स्पर्श से परेशान हो जाया करती, मैं कस कर बंधे स्कार्फ को बर्दास्त नहीं कर पाती, ऐसा लगता कि मेरे गले को हाथों ने दबा रखा है. मैं पुरुषों की आंखों में एक खास भाव से परेशान हो जाती- और ऐसे भाव अक्सर नजर आ जाते.

इसके बावजूद कई दफा मैं सोचती कि मैं अब मजूबत इंसान हूं. मैं अपने जीवन की सराहना पहले से अधिक करती. हर दिन एक उपहार था. मैंने अपने जीवन के लिए संघर्ष किया था और मैं जीती थी. कोई भी नकारात्मक भाव मुझे यह सोचने से रोकती कि यह सकारात्मक है.

मैं पुरुषों से घृणा नहीं करती. ऐसा करना सबसे आसान था, और कई पुरुष ऐसे विभिन्न किस्म के दबाव के शिकार थे. मैं जिससे नफरत करती वह पितृसत्ता थी और उस झूठ की विभिन्न परतों से जो कहती कि पुरुष महिलाओं से बेहतर होते हैं, पुरुषों के पास अधिकार हैं जो महिलाओं के पास नहीं, पुरुष हमारे अधिकार संपन्न विजेता हैं. मेरी नारीवादी मित्र सोचतीं कि मैं महिलाओं के मसले पर इसलिए चिंतित हूं क्योंकि मेरा रेप हुआ है. मगर ऐसा नहीं है. रेप उन तमाम प्रतिक्रियाओं में से एक है जिसकी वजह से मैं नारीवादी हूं. रेप को किसी खाने में क्यों डाला जाये? ऐसा क्यों सोचा जाये कि रेप ही अकेला अवांछित संभोग है? क्या हर रोज गलियों में गुजरते वक्त हमारा रेप नहीं होता? क्या हमारा रेप तब नहीं होता जब हमें यौन वस्तु के तौर पर देखा जाता है, हमारे अधिकारों से इनकार कर दिया जाता है, कई तरीकों से दबाया जाता है? महिलाओं के दमन को किसी एक नजरिये से नहीं देखा जा सकता है. उदाहरण के लिए, वर्ग विश्लेषम आवश्यक है, मगर क्यों बहुत सारे बलात्कार अपने ही वर्ग में किये जाते हैं.

जब तक महिलाएं विभिन्न तरीकों से दमित की जाती हैं. सभी महिलाएं लगातार बलात्कार के खतरे में हैं. हमें रेप को पेचीदा बनाने से रोकना पड़ेगा. हमें समझना पड़ेगा कि यह हमारे चारो तरफ अस्तित्व में है, और इसके विभिन्न स्वरूप हैं. हमें इसे गुप्त तौर पर दफन करना बंद कर देना होगा और इसे अपराध के एक रूप के तौर पर देखना होगा- इसे हिंसात्मक अपराध मानना होगा और बलात्कारी को अपराधी के तौर पर देखना होगा. मैं उत्साहपूर्वक जीवन जी रही हूं. बलात्कार का शिकार होना बहुत खौफनाक है, मगर जिंदा रहना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. मगर जब एक औरत को इसे महसूस करने से रोका जाता है, इसे तो हमारे तंत्र की गड़बड़ी माना जाना चाहिये. जब कोई बेवकूफ बनकर जिंदगी के एवज में खुद पर हमले को झेल लेती है तो किसी को ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि वह स्वेच्छा से मार खाना चाहती थी. बलात्कार के मामले में एक औरत से पूछा जाता है कि उसने ऐसा क्यों होने दिया, उसने प्रतिरोध क्यों नहीं किया, कहीं उसने इसका मजा तो नहीं लिया.

रेप किसी खास समूह की औरतों के साथ नहीं होता और न ही रेपिस्ट एक खास तरह के पुरुष होते हैं. रेपिस्ट एक क्रूर पागल भी हो सकता है और पड़ोस में रहने वाला लड़का भी या एक दोस्ताना अंकल भी. हमें अब रेप को किसी अन्य महिला की समस्या के तौर पर देखना बंद करना होगा. इसे हमें सार्वभौमिक तरीके से देखना होगा और एक बेहतर समझ की तरफ बढ़ना होगा. जब तक रिश्तों का आधार शक्तियां होंगी, जब तक महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के तौर पर देखा जाता रहेगा, हम लगातार अपनी इज्जत गंवाने के खतरे में रहेंगे. मैं बचकर निकली हूं. मैं रेप किये जाने के लिए नहीं कहती और न ही मैंने इसका मजा लिया. यह एक सबसे बुरा किस्म का टार्चर है. मगर यह महिलाओं की गलती नहीं है.
आज सोहेला लिखती हैं, पढ़ती हैं और घूमती हैं. उसके दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. द मैडवुमन ऑफ जोगर एंड इयर ऑफ टाइगर, बच्चों की तीन किताबें, और कई छोटी कहानियां, लेख, खबरें, ब्लाग, कॉलम, मैनुअल आदि वे लिख चुकी हैं. उनके लिखित सामग्रियों को उनकी साइट www.sohailaink.com पर देखा जा सकता है.

पुष्यमित्र वरिष्ठ पत्रकार हैं।
अभी रांची से प्रकाशित "पंचायतनामा" में कार्यरत हैं।
इनसे संपर्क का पता pushymitr@gmail.com है

रविवार, 6 जनवरी 2013

प्यारी लड़कियो

मनीषा पांडेय ने कुछ बिंदु कबाड़खाना ब्लॉग पर लिखे हैं।

ये दिलचस्प हैं और विचारणीय भी।

 

प्‍यारी लड़कियो!

लड़कियो!

1- अपने घरों से बाहर निकलो.

2- पब्लिक स्‍पेस पर कब्‍जा करो. यकीन करो, धरती की हर इंच जगह तुम्‍हारी है और तुम्‍हें कहीं भी जाने-होने-रहने-जीने से कोई रोक नहीं सकता.
 
3- जान लगाकर पढो, टॉप करो और अपना कॅरियर बनाओ. (करियर टॉप प्रायोरिटी पर रखो.)
 
4- अपने पैसे कमाओ, अपना घर बनाओ. अपना कमरा और अपना स्‍पेस.
 
5- एक गाडी खरीदो, दो पहिया या चार पहिया, कुछ भी चलेगा. और उस पर सवार होकर पूरे शहर ... में घूमो, दूर दराज के शहरों में भी. चाहो तो पूरे देश भर में.

6- अपनी जिंदगी की जिम्‍मेदारी अपने हाथों में लो. अपने फैसले खुद करो.
 
7- अमीर पति का ख्‍वाब छोड दो. अमीर पति से मिलने वाली सुविधाओं के साथ गुलामी भी आती है. ये पैकेज डील है. सिर्फ एक चीज नहीं मिलेगी.
 
8- प्रेम करो, अपना सेक्‍चुअल पार्टनर खुद अपनी मर्जी से चुनो.
 
9- किताबें पढो और अच्‍छा सिनेमा देखो. (प्‍लीज लड़कियों, सलमान खान को देखकर आहें भरना बंद करो.)
 
10- अपने कमाए पैसे जमा करो और उस पैसों से पूरी दुनिया घूमो. सुंदरवन के जंगलों और कन्‍याकुमारी के समुद्र तट पर अकेले जाओ. मेरी यकीन करो, अगर हम समझदार, बुद्धिमान और आत्‍मविश्‍वास से भरे हैं तो हमारे साथ कुछ नहीं होगा. और यदि कुछ बुरा हो भी गया तो इसका ये मतलब नहीं कि अगली बार हम सुंदरवन नहीं जाएंगे.
 
हम जो घरों से एक बार बाहर निकले हैं तो अब वहां लौटकर नहीं जाएंगे