रविवार, 17 जुलाई 2011

सब कुछ एक साथ नहीं

कुछ पुरानी डायरी या कहें कि नोटबुक में से दो टुकड़े।

26.01.1998
इधर मैं उनमुक्त नहीं रह पा रहा हूँ जैसा कि मुझे रहना चाहिए।

एक मनुष्य अपने जीवन में सब कुछ एक साथ नहीं बन सकता। अर्थात् घोड़ा, बनिया, राक्षस, गणितज्ञ, लेखक, दुकानदार, संगीतकार, अनंत ज्ञान का स्वामी या कुछ और। इनमें से उसे कुछ न कुछ छोड़ देना होगा अथवा उससे छूट ही जाएगा। इनमें से एक-दो हो जाना और शेष न हो सकना, सफलता-असफलता के दायरे से बाहर है।

मैं अपनी सामर्थ्‍य और सीमाओं के साथ, एक कवि का ही जीवन जीना चाहता हूँ। यह कितना कठिन है। कितना अलभ्य। मुझे किस कदर बुलाता हुआ। यह एक रहस्यमयी पुकार है। धुंध और अँधेरे से आती हुई। कोहरे से आती हुई और कितनी स्पष्ट। कितनी आल्हादकारी!

इच्छा भर होना, प्राप्त होना तो नहीं है। लेकिन मैं इस आकांक्षा का शुक्रगुज़ार होता हूँ।
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तारीख नहीं। शायद 1993।
‘अगर तुम अपनी आकांक्षाओं के रास्ते में आने वाली हर चीज को खतम कर दोगे तो एक दिन पाओगे कि तुम बहुत अकेले हो गए हो..... और (आखिर में) पाओगे कि फिर कोई आकांक्षा भी नहीं बची रह गई है।’
-(एक फिल्म को देखते हुए आया ख्याल।)
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बुधवार, 13 जुलाई 2011

सर्जनात्मक अराजकता

सर्जनात्मक अराजकता
नागार्जुन की कविता पर एक संक्षिप्त टीप


एक उक्ति का सार है कि लेखकों को अपना घर ज्वालामुखियों के किनारे बनाना चाहिए। इसकी व्यंजना और ध्वनि मुक्तिबोध के कथन के इस आशय तक भी आती है कि सच्चे लेखकों को अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होते हैं। बीसवीं सदी की समूची हिन्दी कविता में नागार्जुन ही एक मात्र कवि हैं जो इस तरह यायावरी करते हैं कि जहां जाते हैं वहां अपना घर और ज्वालामुखी साथ लेकर चलते हैं और अभिव्यक्ति के समस्त संभव खतरों से गुजरते हैं।

इन खतरों को निराला, मुक्तिबोध जैसे कवि भी उठाते हैं, नागार्जुन के सामने भी प्रस्तुत समय के सभी अंतर्विरोध, अमानुषिकता और सत्ता की शक्ति के भयावह रूप उपस्थित थे, साथ ही व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयां। इनके बीच कविता लिखना, सर्जक की तरह सक्रिय रहना किसी लेखक के मन में अनेक तरह की निराशाएं, भय और आशंकाएं भर सकता है, लेकिन इनके बरअक्स नागार्जुन कभी भी, किसी भी स्थिति में ‘पैरानोइया’ के लक्षणों से ग्रस्त नहीं होते। वे अपने कविकर्म में अपवाद स्वरूप भी अपना आत्मविश्वास, प्रतिरोध, प्रतिबद्धता और आशावाद कभी नहीं छोड़ते।

कबीर के साथ उनके आराध्य राम का, एक तरह की आध्यात्मिकता का संबल था लेकिन नागार्जुन सिर्फ और सिर्फ आमजन, शोषित बहुजन के संबल के सहारे ही एक अराजक सर्जनात्मकता को मुमकिन करते हैं। नागार्जुन का अध्यात्म यही जनता थी। उनकी समूची कविता में अनवरत एक ऐसी अराजकता विद्यमान है जो विशिष्ट और जनोन्मुखी सर्जनात्मकता का प्रादुर्भाव करती है। अधिकांश जगहों पर वह उनकी कविता में विन्यस्त विचारों में देखी जा सकती है और अन्य अनेक स्थलों पर भाषा, छंद और रूप के निर्माण और उल्लंघन में भी।

उनकी कविता में इस अराजकता का गहरा रचनात्मक मूल्य है इसलिए वह अकविता की शब्दावली में या किसी शून्यवाद में या तेज-तर्रार भाषा भर में गुम नहीं हो जाती। वह क्रोध, अपमान, मोह, आशा और घृणा के विवेक से संचालित है। जैसे ये पंचतत्व हैं जो उनकी कविता को बनाते हैं।

विषयों की दृष्टि से देखें तो नागार्जुन की कविता सर्वाधिक अप्रत्याशित, प्रतिबंधित और अनुपयुक्त क्षेत्रों में चली जाती है। सुअर, भुटटे, चूडि़यां, बादल, इंदिरा गांधी, नक्सलवाद, हरिजन, अकाल, मंत्र, जूतियां, खेत, विपल्व, बंदूक- इन कुछ शब्दों के सहारे अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी कविता की यात्रा किस हद तक बीहड़, जनोन्मुखी और अनुपमेय थी। जबकि काव्य विषय संबंधी ये शब्द उनकी काव्यधर्मिता का दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं हैं।

उनकी कविताएं और उनका जीवन बता सकता है कि वे लगातार खुद को डि-क्लास करते हैं। अपना प्रतिरोध भी डि-क्लास होकर ही दर्ज करते हैं। उनकी कविता ‘एक्टिविस्ट’ है। सक्रिय, सचेतन और आबद्ध है। वह विचार, नारा और उक्ति को एकमएक कर देती है। वह समकालीनता की प्रामाणिक अभिव्यक्ति भी है जो अपने समकालीनता के बाड़े को, उसकी परिधि को लांघ जाती है। लेकिन वह अपने समय को दिनांकित करती चली जाती है। इसलिए उनकी कविता में अपने समय की राजनैतिक और सामाजिक घटनाओं को साक्ष्य की तरह और एक रचनाकार की व्याख्या की तरह भी देखा जा सकता है। बल्कि उसे एक क्रम में रखकर देखने से उसका एक ऐसा सामाजिक-राजनैतिक इतिहास लेखन संभव है जो सत्ता संरचनाओं के प्रतिरोध से उत्पन्न है।

वे कवि की ओर से लगातार एक ‘गजट’ प्रकाशित करते जाते हैं। वे समकालीनता को एक शक्ति में, विराट गतिशील रूपक और टकराहट में बदल देते हैं। वे अलसाये, अघाए, निश्चेष्ट, कलावादी और आत्मदया से लबरेज कवियों में लज्जा भर सकते हैं।

जादुई यथार्थवाद के तमाम रचनात्मक तामझाम के बीच मुझे यह विचित्र आकर्षण और अचरज का विषय लगता रहा है कि नागार्जुन ने ऐसे सीधे, अक्षुण्ण और बींधते यथार्थ को सामने रखा जिसने एक नए तरह का जादू अपनी तरह से संभव किया। यह यथार्थवादी जादू है। यह प्रगतिवादी और जनवादी जादू है। यह जनपक्षधरता, जनप्रतिबद्धता और जनसमूह के बीच खड़े रहने का, उसमें विश्वास का जादू है। यह कला और कविता का जादू है। यह अनलंकृत होने का और अभिव्यक्ति के साहस का और दृष्टिसंपन्नता का जादू है। यह उस भाषा का जादू है जो जनता के कारखाने में बनती है, जो महज साहित्य से साहित्य में प्रकट नहीं होती। यह अनुभव और जनसंघर्षों में भागीदारी का जादू है।

हिन्दी में अच्छी प्रेम कविताओं का अभाव सा है। जो कुछ बेहतर कविताएं हैं, उनमें नागार्जुन की कविता ‘वह तुम थीं’ अविस्मरणीय है। ‘कर गई चाक, तिमिर का सीना, जोत की फांक, वह तुम थीं’। इन शब्दों में मितव्ययी होने का और शब्दों से कुछ अधिक कार्यभार संपन्न करा लेना भी अविस्मरणीय है। यह कविता एवं प्रकृति के उपादानों से लिखी अन्य अनेक कविताएं हमें नागार्जुन के उस उदात्त, प्रेमिल, मानवीय और भावुक रूप का भी पता दे सकती हैं, जिसे नागार्जुन के संदर्भ में प्रायः विस्मृत सा कर दिया जाता है।

एक कवि के लिए विस्मय, चुनौती और प्रेरणा भी, तीनों नागार्जुन के पास जाने पर मिलेंगे।
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