सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

ट्रेड यूनियनों के भूले हुए काम और चुनौतियॉं

पिछले लेख से किंचित सम्‍बद्ध लेकिन स्‍वायत्‍त और स्‍वतंत्र तरीके से कुछ वैचारिक बिंदु प्रस्‍तुत करने वाला यह एक लेख और दे रहा हूं। आशा है, गंभीर पाठकों के लिए यह आवश्‍यक उत्‍तेजना दे सकेगा।

ट्रेड यूनियनों के
भूले हुये काम और चुनौतियाँ


ट्रेड यूनियनों के जन्म, कार्य और सक्रिय उपस्थिति ने संसार में क्या कुछ कर दिया है, वह एक गर्वीला इतिहास है। इस संबंध में हजारों पृष्ठ हमारे सामने हैं। संक्षेप में यह कि औद्योगिक क्रांति ने पूँजी के हृदयहीन शासन और उसकी तानाशाही का जो पहिया घुमाया, उसे अपने लहुलुहान हो गए हाथों से थामने का, उसकी दिशा को बाध्यकारी रूप से मानवोन्मुखी करने का काम ट्रेड यूनियनों की वजह से भी संभव हुआ। श्रम-संगठनों ने शोषण के चक्र को ऐतिहासिकता में समझते हुए, उसके खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से जुझारू संघर्ष किया और श्रमिकों को वे सारे अधिकार दिलाने का काम जारी रखा जिनसे वे एक बेहतर मनुष्य का जीवन जी सकने का स्वप्न देखते रहे और अनेक अधिकारों को पा सके। भारत में श्रमिक आंदोलन का इतिहास देश की स्वतंत्रता से काफी पहले का है। वह पूँजीपतियों और उनकी शोषक नीतियों के विरुद्ध रहा है इसलिए ही वह अंग्रेजों के जमाने में भी था और आज भी है।

उत्पादक पूँजीधारकों की मंशाओं को जो तािर्कक, ठोस चुनौती श्रम-संगठनों से मिलती रही है उससे अब पूँजीपतियों को स्पष्ट होता गया है कि उन्हें श्रम को हथियाने के लिए कुछ नए तरीके खोजने होंगे ताकि वे पूंजी के खेल और अपने लाभ को अबाध गति से आगे बढ़ाते हुये श्रमिकों का हद दर्जे तक दोहन कर सकें। वैश्वीकरण और उदारवाद की हवा ने उन्हें यह मौका दिया है। कंप्यूटर की पेन्टियम सीरीज, इंटरनेट, ई-बिजनेस और ऑनलाइन तकनीक तक आते-आते उन्हें श्रमिकों से मुक्ति मिलने की आस बँध गई है। इससे ट्रेड यूनियनों के सामने नयी समस्याएँ और चुनौतियाँ भी पैदा हुई हैं। यद्यपि अनेक समस्याएँ, प्रजनन करती हुईं पुरानी समस्याओं में से ही निकलकर आई हैं और यदि अभी भी श्रम-संगठनों ने कुछ मूलभूत बातों की तरह पुन: ध्यान नहीं दिया तो यह क्रम आगे भी जारी रहने वाला है। यह पुरानी बीमारियों के लौटने का समय है। जिनमें नौकरी की अनिश्चितता, श्रम कानूनों का हनन, कार्यघंटों को बढ़ाकर असीमित किया जाना, कार्यालयीन दुव्र्यवहार, श्रमिकों से असंभव किस्म की अपेक्षाएँ, सेवाशर्तों में सुधार न करना एवं जो सेवाशर्तें हैं उन्हें व्यवहार में लागू न करना आदि। इसलिए उन मूलभूत बिंदुओं और सवालों की तरह यहाँ ध्यान दिया जाना चाहिए जो भले ही अब किंचित पुराने क्यों न लगने लगे हों लेकिन इनसे ही वे कुछ भूले हुये काम भी याद आयेंगे जो ट्रेड यूनियन के लिए जरूरी हैं, जिन्हें कतई दरकिनार नहीं किया जा सकता।

संगठनकारी आंदोलन का केंद्र और वैचारिक शिक्षा
सबसे पहले हम माक्र्स के `मजदूरी, दाम और मुनाफा´ शीर्षक लेख में कही गई बात याद करते हैं: `ट्रेड यूनियन मजदूरों के तात्कालिक हितों की रक्षा का साधन ही नहीं है बल्कि पूँजीवाद के उन्मूलन के लिए संघर्ष में, सर्वहारा के संगठनकारी आंदोलन का केंद्र भी है।´ जाहिर है कि ट्रेड यूनियन को व्यापक, दूरगामी और महत्वपूर्ण जिम्मेवारी से ओतप्रोत माना गया था। इस उद्देश्य को पाना तब तक ही संभव है, जब तक ट्रेड यूनियनें अपने सदस्य साथियों को पूँजीवाद से संघर्ष के लिए बौद्धिक रूप से तैयार करने का काम और आंदोलन एक साथ करती रह सकें। प्रारंभ में यह हुआ लेकिन जल्दी ही ट्रेड यूनियनों ने `मजदूरों के तात्कालिक हितों´ की रक्षामात्र को ही अपना कार्यभार मान लिया। लेकिन जब आप दो पतवारों में से एक पतवार फेंक देते हैं तो नाव की दिशा, गति और संतुलन भी डिग जाता है इसलिए यह हुआ कि `मजदूरों के तात्कालिक हित´ क्या हैं एवं क्या हो सकते हैं, इसी प्रश्न पर चीजें गड़बड़ाने लगीं। ट्रेड यूनियन के सदस्य-साथियों में वैचारिकता के अप्रसार ने उस चेतना को ही समाप्त कर दिया है जो किसी आंदोलन के लिए श्रमिक में उत्साह, लगन, समझ और जुझारूपन पैदा कर सकती है।

यह वैचारिकता ही है जो श्रमिकों के बहाने एक विशाल `सर्वहारा वर्ग´ को शोषण-मुक्ति, समता, न्याय, स्वतंत्रता और मनुष्य की अस्मिता के पाठ पढ़ा सकती है। उनकी सोच को व्यवहार बुद्धि के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न कर सकती है। श्रमिक साथी के रूप में उन्हें अपने व्यक्तिगत कार्यभार और चुनौतियों के प्रति सजग बनाते हुए एक सक्रिय कार्यकर्ता में बदल सकती है। श्रम-संगठनीय शिक्षा के अभाव में आम सदस्य (या कार्यकर्ता) बेहद स्वार्थी, व्यक्तिगत परिधि में घिरे आदमी के रूप में ही तबदील हो सकता है और दुर्भाग्य से ऐसा हो रहा है। इस समय में भी वैचारिक शिक्षा ही वह गंगोत्री हो सकती है जिससे आगे जाकर नदी का पाट चौडा हो सके, बहाव तेज हो, चट्टानों, मैदानों, बीहड़ों को पार किया जा सके और आबादियों को खुशहाल करते हुए एक विशाल समतामूलक डेल्टा का निर्माण हो।

दक्षिणपंथी और पूँजीपति पार्टियों की ट्रेड यूनियनें
किसी संगठन के कितने सदस्य हड़ताल पर जा रहे हैं, यह संख्या हड़ताल की सफलता की सूचना तो दे सकती है किंतु यदि उसके ये सदस्य शिक्षित और प्रतिबद्ध नहीं हैं तो निर्णायक आंदोलन में यह संख्या धोखादेह हो सकती है। बल्कि रोजमर्रा के कार्य-व्यापारों में, ऐसे सदस्य-साथी ट्रेड यूनियन के महती कार्यक्रमों और उद्देश्यों को चुपचाप तरीके से नष्ट करते चले जाएँगें। उनकी राजनीतिक समझ कच्ची ही नहीं रहेगी अपितु अवसरवादी भी हो जाएगी। इसलिए यह देखना आश्चर्य का विषय शायद नहीं होना चाहिए कि साम्यवादी ट्रेड यूनियनों तक के सदस्यों में उन लोगों की बहुतायत होती जा रही है जो राजनीतिक तौर पर दक्षिणपंथी या धुरदक्षिणपंथी पार्टियों के साथ खड़े हैं। यहाँ इस बात की तरफ ध्यान देना दिलचस्प होगा कि दक्षिणपंथी पार्टियाँ, श्रम-अधिकारों को स्थायी तौर पर नष्ट करने के लिए कमर कस चुकी हैं।

ट्रेड यूनियनों के निर्माण के मूलाधार में इस समझ का स्वीकार शामिल रहा कि समाज में कम से कम दो वर्ग हैं। एक पूँजीपति का, जो पूँजी या संस्थान का मालिक है और दूसरा सर्वहारा (श्रमिक) का, जो किसी भी पूँजी का स्वामी नहीं है और अपना श्रम बेचने के लिए विवश है। इस तरह वर्गीय विभाजन के आधार पर यह समझ भी साफ होती है कि पूँजी, श्रम का शोषण करने में सक्षम है अतएव समाज में `वर्ग संघर्ष´ एक आवश्यक परिघटना है जिसके जरिए न्याय और समता का स्वप्न देखा जाता है। किंतु यह विलक्षण है कि पिछले कुछ वर्षों में उन राजनीतिक पार्टियों के `श्रम संगठन´ भी मैदान में हैं जो दरअसल समाज में वर्ग-भेद के सिद्धांत से ही सहमत नहीं हैं, तब वर्ग-संघर्ष की समझ और स्वीकारोक्ति की बात कौन कहे। उनका काम अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट या अन्य प्रकार का समर्थन जुटाना एवं श्रमिकों के वेतन बढ़ाए जाने के नाम पर सतही आंदोलन करना रहा है। जाहिर है, ऐसी ट्रेड यूनियनों की उपस्थिति ने `वामपंथी ट्रेड यूनियनों´ के उद्देश्यों और दायित्वों को धूमिल करने में सहायक भूमिका निबाही है। `ट्रेड यूनियन आंदोलन के अर्थ एवं आवश्यकता´ की शिक्षा के अभाव ने ठीक वही काम किया है जो किसी समाज में निरक्षरता कर सकती है। और इसका लाभ पूँजीपतियों ने ठीक उस तरह ले लिया है जिसकी आशंका माक्र्स ने डेढ़ सौ साल पहले `कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा-पत्र´ में व्यक्त कर दी थी -`मजदूर अपनी ही होड़ और असंबद्धता के कारण, बँटे हुए जन-समुदाय होते हैं और कहीं वे एक संगठन बनाते भी हैं तो यह उनके सक्रिय एके का फल नहीं, पूँजीपति वर्ग के एके का फल होता है क्योंकि पूँजीपति वर्ग को अपनी राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूरे सर्वहारा वर्ग को गतिशील करना पड़ता है।´ हम देख सकते हैं कि आज की तारीख में सरकार या पूँजीपतियों के सामने ट्रेड यूनियनें एक तरह की सुविधा बनती जा रही हैं जिनके जरिए वे अपने पक्ष में कई चीजों को गतिशील कर पा रहे हैं। कहीं-कहीं तो पूँजीपतियों ने ही अपनी ट्रेड यूनियनें मैदान-ए-जंग में उतार दी हैं। इसका प्रभाव वैसा ही है जैसा सेना में दुश्मन के वेष बदलकर शामिल होने पर हो सकता है। इधर ऐसी धुर दक्षिणपंथी ट्रेड यूनियनों के साथ जो साझेदारियाँ बन रही हैं वे दूरगामी परिणामों की दृष्टि से खतरनाक हैं। मुश्किल यह भी है कि हमारी वर्तमान भारतीय संसदीय राजनीति ऐसे गठबंधनों का प्रेरणा स्त्रोत है लेकिन ध्यान रखना होगा कि संसदीय राजनीति का गंतव्य और उद्देश्य वे नहीं हैं जो श्रम-आंदोलन के होते हैं।

मजदूर वर्ग या तो क्रांतिकारी होता है या फिर कुछ नहीं
अपने सदस्यों को शिक्षित करने का अनवरत और जरूरी काम ट्रेड यूनियनों से छूटा हुआ है, जिसमें अनिवार्य शिक्षा का यह सूत्र शामिल होना चाहिये कि `मजदूर वर्ग की मुक्ति, स्वयं मजदूर वर्ग का कार्य ही हो सकता है।´ इस सूत्र ने संसार में नारीवादी आंदोलन और दलित आंदोलन को भी दिशा एवं स्फूर्ति दी है। यह शिक्षा ही वह संवाद पैदा कर सकती है जो किसी आंदोलन को रोज नया आयाम तथा चेतना प्रदान करते हुए, उसे अद्यतन बनाता है ताकि वह पूँजी, पूँजीवादी तकनीक और शोषण के नवीनतम रूपों को, मुखौटों को पहचान कर उनके विरुद्ध संघर्ष कर सके। इसके उलट यह देखना दिलचस्प और बिडंवनाजन्य है कि ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में ऐसे क्रियाशील लोगों की संख्या बढ़ती चली जा रही है जिनका श्रम-संगठन की विचारधारा से लगभग कोई संबंध नहीं रह गया है। उन्हें पता ही नहीं है कि अंतत: ट्रेड यूनियन एक बड़ी वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक कार्यवाही भी है। विचारधारात्मक ज्ञान के अभाव में ये नेता, अपने-अपने संस्थानों की सेवा-शर्तों, नियमों की जानकारी भर रखते हैं ताकि वे क्षेत्रीय या शहरी स्तर पर अपना वर्चस्व कायम रख सकें और एक व्यक्तिगत किस्म की जमींदारी बनाकर उसके छत्रप हो सकें। कई बार उनकी योग्यता इतनी भर होती है कि वे अपने क्षेत्र या संस्थान के अराजक, तेज-तर्रार, महत्वाकांक्षी और प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं। ट्रेड यूनियन की विचारधारा, दायित्व, विविधता, आंदोलन और हस्तक्षेप की सकारात्मकता से उनका दूर तक संबंध नहीं होता। ये नारे लगा सकते हैं और धौंस-दपट के सहारे समायोजन करते हुए अपनी नौकरी का जीवन गुजारते हैं। इन अपढ़ बल्कि कुपढ़ नेताओं की जमात हर ट्रेड यूनियन में बढ़ती जा रही है जबकि ट्रेड यूनियन का काम गहरी बौद्धिकता, पठनशीलता, स्वप्नशीलता, क्रांतिकारिता और जमीनी क्रियाशीलता की माँग करता है।

ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए आवश्यक इस कथन को अब विस्मृत किया जा रहा है कि `मजदूर वर्ग या तो क्रांतिकारी होता है अथवा फिर कुछ नहीं होता है।´ जाहिर है कि यहाँ क्रांतिकारिता का अर्थ आंदोलन की स्पष्ट समझ और स्वप्नदृष्टि से है, जिसके मूल में वर्ग-संघर्ष की विचारधारा है। रोज-रोज की लड़ाइयों से भी इसका वास्ता होता है। अधिकांश श्रमिक नेताओं के जीवन को करीब से देखने पर यह सूचना मिलती है कि वे निजी विश्वासों और क्रियाकलापों में गैर-प्रगतिशील हैं, समझौतावादी ही नहीं अवसरवादी भी हैं, अवैज्ञानिकता से भरे हुए हैं फलस्वरूप उनका जीवन किसी तरह की प्रेरणा और संघर्ष का स्त्रोत नहीं बनता है। इस बीमारी को भी दूर करना होगा। संतोषप्रद है कि प्रमुख ट्रेड यूनियनों के उच्च्तम नेतृत्व के कुछ साथियों में अभी उस बुद्धिजीविता, आदर्श और समझ की कौंध दिख जाती है जिसकी अपेक्षा श्रम-आंदोलन को है लेकिन दूसरी-तीसरी पंक्ति में उसका गहरा अभाव है, जिसका खामियाजा पूरे श्रम आंदोलन को भुगतना पड़ रहा है। ट्रेड यूनियन में बौद्धिक तेजस्विता और वैचारिक प्रतिबद्धता को बचाये रखने का काम ठीक सामने है।


पूँजीवादी समाज में श्रमिक अधिकार वाष्पशील होते हैं
आज जबकि देश में वामपंथी राजनीति ह्रास का शिकार है तब ट्रेड यूनियन आंदोलन की सक्रियता ही इस खाली स्थान को भर सकती है। बल्कि वामपंथी राजनीति को सहारा और विश्वास देने का काम भी ट्रेड-यूनियन आंदोलन कर सकता है। श्रम कानूनों में विस्मित करने वाले परिवर्तन किए जा रहे हैं अथवा प्रस्तावित हैं, उसके विरोध में जो गतिशीलता और योजनाबद्ध संघर्ष चाहिए, वह अभी परिलक्षित नहीं हो रहा है। ज्ञातव्य है कि इन कानूनों से ऐसे अधिकार रक्षित हैं जो पूरे संसार के श्रमिकों को समवेत लड़ाई से एक शताब्दी में मिले हैं। इन अधिकारों में अनेक श्रमिकों के खून की चमक है और वे एक अग्रगामी, प्रगतिशील समाज के विकास के साथ-साथ अर्जित किए गए हैं। इन अधिकारों की रक्षा के लिये कठोर कदम उठाने की बजाय जैसे श्रम-संगठन स्तब्ध हैं। संभवत: इसका बड़ा कारण यही है कि वे अपने अधिसंख्य सदस्यों की समझ और गतिशीलता के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। इसके मूल में आम सदस्य-साथियों की अशिक्षा और उनकी प्रतिबद्धता पर संशय ही है।

`नौकरी की सुरक्षा´ पर सवाल खड़े करते हुए जैसे पूँजीपतियों ने ट्रेड यूनियनों के संघर्ष की दिशा ही मोड़ दी है और उन्हें बेहद रक्षात्मक तरीके अपनाने पर विवश कर दिया है। पूँजीवाद का यह आक्रमण अपने साथ बाजार का तर्क लेकर आया है। इसलिये यह वक्त ट्रेड यूनियनों के लिए कहीं अधिक व्यवस्थित और आक्रामक होने का है। अर्जित अधिकार, चाहे वे परंपरागत रूप में ही क्यों न मिल गए हों, उनकी रोज-रोज रक्षा करनी होती है क्योंकि किसी पूँजीवादी समाज में श्रमिक के अधिकारों से अधिक वाष्पशील कुछ नहीं होता। यह मान लेना कि कोई पा लिया गया अधिकार अब स्थायी है, भोलापन तो है ही, खुद को छलना भी है। कछुओं के साथ लगायी जा रही दौड़ में भी कोई खरगोश निश्चिंत नहीं रह सकता फिर यह दौड़ तो शेर और हिरणों के बीच की है।

श्रमिक होना अंतत: एक वर्ग में होना है
`वर्ग-विस्मृति´ एक दूसरी चुनौती है। संगठित क्षेत्रों के श्रमिकों के लिए तनख्वाह और सुविधाएँ जैसे ही कुछ हद तक संतोषजनक और स्थायी होती हैं अथवा उनका जीवन-स्तर अन्य श्रमिकों की तुलना में जरा-सा ही बेहतर होता है, वे अपने `स्थायी वर्ग´ को विस्मृत करने लगते हैं। यह अपनी जड़ों को भूलना तो है ही, और यही पक्ष पूँजीवाद के लिए वरदान हो जाता है। इस तरह वे श्रमिकों के बीच दो फाड़ कर देते हैं। मानसिक कार्य करने वाले श्रमिकों के बीच यह विस्मृति और गफलत तेजी से फैलती है क्योंकि उन तक यह भ्रमपूर्ण प्रचार फैलाने में सफलता मिल रही है कि `मस्तिष्क-प्रमुख श्रमिक´ के रूप में वे अन्य श्रमिकों से अलग और श्रेष्ठ हैं। मस्तिष्क का श्रम और हाथ का श्रम, यह विभाजन मूलत: श्रमिकों की एकता को तोड़ने के लिये ही किया जाता रहा है। जबकि सभी प्रकार के श्रम करने वाले अंतत: श्रमिक हैं और सर्वहारा वर्ग में ही हैं। उनमें से किसी के पास वह पूँजी नहीं है जो उन्हें उत्पादक साधनों का मालिक बना सके और उनको वर्गांतरित कर दे। मस्तिष्क, हाथ, पैर, आँखें, कान ये सब इसी शरीर के हिस्से हैं, और कोई-सा भी हिस्सा श्रम में अधिक उपयोग में आये, अंतत: वह श्रम करना ही है। नौकरी छूटने की चिंता सब तरह के श्रमिकों में एक जैसी पायी जाती है क्योंकि वे साधनों के स्वामी नहीं है और अब तो वे `विकट बाजार´ के अधीन हैं।

नया आयाम यह है कि संस्थानों के प्रबंधन से, मालिकों या पूँजीपतियों से, वर्ग के रूप में श्रमिकों का जो आवश्यक द्वैत बनना चाहिए था, वह अजीब से मैत्री-भाव में तबदील होता दिख रहा है। इससे ट्रेड यूनियन की धार ही कुंद पड़ती जा रही है। तब वह `सर्वहारा के संगठन का केंद्र´ कैसे बन सकता है, यह पड़ताल और आकांक्षा का विषय है क्योंकि बिना विचारधारात्मक उद्देश्य के कोई भी श्रम-संगठन केवल `तनख्वाह बढ़ाओ समूह´ में स्खलित हो जाएगा जबकि उसके पास बेहतर दुनिया का स्वप्न हमेशा रहना चाहिये। इसलिए अनिवार्य है कि ट्रेड-यूनियनों के स्तर पर अपने शीर्ष नेताओं तथा दूसरी-तीसरी पंक्तियों के नेतृत्वकारी साथियों के बीच विचारधारात्मक शिक्षा का नियमित प्रसार हो और प्रतिबद्धताओं का महत्व समझा जाए और अपने जीवन से उनका प्रमाण दिया जाए। सबसे महत्वपूर्ण बिंदु तो यही समझना होगा कि ट्रेड यूनियन आंदोलन एक व्यापक और वैचारिक गतिविधि है। इसलिए वह गहरे अर्थों में राजनीतिक और क्रांतिकारी सक्रियता भी है। उसकी एक सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका भी है। वह अकेले में की जाने वाली अथवा किसी संस्थान विशेष के श्रमिकों के बीच घटित होने वाली कार्यवाही भर नहीं है। वह समाज में उत्पादन और सेवाओं के रिश्ते तय करते हुए, नए समाज को बनाने का भी एक कारखाना है। वह समाज से उपजी है, समाज सापेक्ष है और समाज में अपना पक्ष लेकर ही काम कर सकती है। यही पक्षधर दृष्टि उसके अस्तित्व का आधार है। इसलिये तेजी से बढ़ते जा रहे असंगठित क्षेत्रों यथा प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सॉफ्टवेयर-हार्डवेयर कंपनियाँ, निजी वित्तीय संस्थानों, सेवा क्षेत्र की अनगिन कंपनियों, होटल-पर्यटन व्यवसायों आदि तक ट्रेड यूनियन आंदोलन को अपने प्रखर, वास्तविक और वैचारिक कार्यवाही के रूप में प्रसारित करने का काम भी, वर्तमान में सक्रिय ट्रेड यूनियनों तथा समानधर्मा वामपंथी संगठनों के सामने चुनौती की तरह है।

अंत में एक प्रांसगिक निरीक्षण।
उत्तर भारत में ट्रेड यूनियन संबंधी वैचारिक परिपत्रों और साहित्य का जो थोड़ा-बहुत वितरण होता है, अचरज की बात है कि वह ज्यादातर अंग्रेजी में होता है, इससे शिक्षा और सूचना के प्रचार में गहरा अवरोध आता है। ट्रेड यूनियनों को तत्काल ध्यान देना होगा कि भाषा का अंतराल किसी भी अभीष्ट को मुश्किल बनाते हुए धीरे-धीरे असंभव बना देता है और आम सदस्य साथियों को अपढ़ बनाए रखने में अपनी अनजानी भूमिका निबाहता है।
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