शनिवार, 28 जनवरी 2012

पसीने की गंध

पिछले दो दशकों से रवीन्‍द्र व्‍यास मेरे प्रिय हैं। दोस्‍ती मेरे इंदौर प्रवास में लिखने पढ़ने की वजहों से हुई। और जल्‍दी ही मामला पारिवारिक हदों तक हुआ। और अब हम एक-दूसरे को लगातार 'मिस' करते हुए, अलग-अलग शहरों में रह रहे हैं।
रवि कम लिखता है, महत्‍वाकांक्षा उसे जैसे छू भी नहीं गई है। उसे प्रेरित करने के लिए कम से कम एक क्विंटल प्रेरणा चाहिए। फिर भी वह अपनी रौ में लिखता है। जिद करके पेंटिंग सीखी और अर्जित की। उसने जैसे हम सबको बताया कि प्रतिभा से कहीं अधिक आकांक्षा,निश्‍चय और प्रतिबद्धता मायने रखती है। जलरंग माध्‍यम में, एक ही रंग में जो उसने काम किया है वह विशाल हरे, नीले, लाल चुंबक की तरह खींचता है। वह उतना बड़ा चुंबक तो है ही जितना कि कोई विशाल ग्रह हो सकता है। उसके चित्रों में संगीत और कविता का रंग शामिल है।
बहरहाल, उसके कम लिखे हुए गद्य में भी काव्‍य तत्‍व निवास करते हैं और उस गद्य को एक नयी, अप्रतिम हार्दिकता प्रदान करते हैं। उसे वाक्‍य लिखने की तमीज है। वह जीवन के उत्‍स से अपना गद्य संभव करता है। विजुअल्‍स बनाता है और मार्मिक गद्य हमारे सामने होता है।
रवि पर और उसके साथ बिताए समय पर,हमारे सैंकड़ों दिनों और रातों पर मैं कुछ ज्‍यादा लिख सकता हूं, लिखना चाहता हूं लेकिन अभी मैं उसके ब्‍लॉग http://ravindravyas.blogspot.com/ में से ही एक छोटा सा टुकड़ा यहां रख रहा हूं। यह पुनर्प्रकाशन है लेकिन यह आनंद को प्रसारित करना भी है।



जिंदगी से बेदखल पसीने की गंध

रवीन्‍द्र व्‍यास


मेरे पिता के पसीने की गंध अब भी मेरे मन में बसी है। वे हमेशा पैदल चलते थे और उन्होंने कभी साइकिल तक नहीं चलाई। उनके बचपन का एक फोटो मैंने अब तक संभाल कर रखा है जिसमें वे तीन पहिए की साइकिल पर बैठे हैं। उन्होंने मुझे बहुत कम गोद में उठाया। संयुक्त परिवार में होने के कारण माँ हमेशा रसोईघर में रहती और मुझे मेरी बड़ी बहनें संभालती।
मुझे याद है, बचपन में खेलते हुए जब मेरे दाहिने पैर के अँगूठे का नाखून उखड़ गया तो पिता ने मुझे गोद में उठाया और सिख मोहल्ले के डॉक्टर सिंह के क्लिनिक ले गए क्योंकि उस दिन शायद डॉक्टर फाटक नहीं थे जो हमारे परिवार के सभी सदस्यों का इलाज करते थे।
मैंने रोते हुए पिता के कंधे पर अपना सिर रखा था और दर्द को सहते हुए मुझे पिता के पसीने की गंध भी आ रही थी। उसमें सरसों के तेल की गंध भी शामिल थी क्योंकि पिता कसरत के पहले मालिश किया करते थे।
हमारा घर बहुत छोटा था। बहनें जब कभी बाहर जाती, मेरी पीठ के पीछे कपड़े बदल लिया करती थीं। मेरी पीठ उनके लिए छोटा-सा कमरा थीं। कई बार जल्दबाजी में वे कपड़े ऐसे पटकती कि वे मेरे सिर पर गिरते थे। उनके पसीने में राई-जीरे से लगे बघार की गंध होती थी। उनके पसीने की गंध मैं भूला नहीं हूँ।
और दुनिया में कौन ऐसा बच्चा होगा जो अपनी माँ के पसीने की गंध को भूल सकता है।
और आज खुशबू का करोड़ों का कारोबार है, जिंदगी से पसीने की गंध को बेदखल करता हुआ। एक विज्ञापन बताता है कि एक खुशबू में इतना आकर्षण, सम्मोहन और ताकत है कि दीवारों में लगी पत्थर की हूरें जिंदा होकर चुपचाप मंत्रमुग्ध-सी उस बाँके युवा के पीछे चल पड़ती हैं जिसने एक खास तरह के ब्रांड की खुशबू लपेट रखी है।
अब तो हर जगह को नकली खुशबूओं ने घेर रखा है। शादी हो या कोई उत्सव, या चाहे फिर कोई-सा प्रसंग नकली खुशबुओं का संसार पसरा पड़ा है। जिसको देखो वह बाजार में सजी नकली खुशबू में नहाया निकलता है। मजाल है जो कहीं से पसीने की गंध आ जाए। और अब तो खुशबूएँ कहाँ नहीं हैं। वे हमारी गोपन जगहों पर भी पसरी पड़ी हैं क्योंकि अब बाजार में कंडोम भी कई तरह की खुशबू में लिपटे मिलते हैं।
मैं जहाँ कहीं, किसी कार्यक्रम में जाता हूँ तो लोग नाना तरह की खुशबू में नहाए मिलते हैं। इन समारोह में कई ऐसे दृश्य भी दिखाई देते हैं जहाँ पिता अपने बच्चों को ढूँढ़ रहे हैं, माँएँ अपने बच्चों को गोद में बैठाकर आईसक्रीम खिला रही हैं या फिर बहनें अपने छोटे भाई का हाथ पकड़कर उसे नूडल्स के स्टॉल की ओर ले जा रही हैं। और ये सब नकली खुशबू में नहाए खाते-पीते खिलखिला रहे हैं।
खुशबू के फैले इस संसार में क्या उस बच्चे को अपने पिता, माँ या बहन के पसीने की गंध की याद रहेगी?

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

जैसे विरोध करने की कोई उम्र होती है

इधर लगातार एक अनुभव हो रहा है, प्रत्‍यक्ष हो रहा है कि हमारे अनेक प्रगतिशील, जनवादी लेखक दक्षिणपंथी संस्‍थाओं, सत्‍तासीन लोगों के साथ मंचासीन होने में कोई परहेज नहीं बरत रहे हैं। बल्कि लगता है कि वे इससे गौरवान्वित, सम्‍मानित और प्रसन्‍न हैं। और इसके लिए अपने तर्क भी गढ़ चुके हैं। इनमें से अनेक वे अग्रज हैं जो हमें प्रतिबद्धता, संघर्ष,प्रतिरोध, वामपक्ष और प्रतिवाद का पाठ पढ़ाते रहे हैं। ये लोग तय कर रहे हें कि यह कविता, जो करीब एक दशक पहले लिखी गई थी, वह कहीं अधिक प्रासंगिक बनी रहे, उसे ये दुखद रूप से जैसे सिद्ध कर रहे हैं।


जैसे विरोध करने की कोई उम्र होती है

बेकार है इस उम्र में किसी तरह का विरोध करना
एक बेटी अभी तक है अनब्याही
जब उम्र थी कई लोगों से ले ली बुराई
अब ठीक यही हिलमिल कर गुज़ारें जीवन
क्या पता कब क्या मुश्किल आए
अस्पताल भी जाना पड़ सकता है आधी रात में
अपने बच्चे ही नहीं सुनते जब कोई बात
तब क्या परिषदों, अधिकारियों, अकादमियों से टकराना
क्या नारेबाजी और क्या भृकुटि को तलवार बनाना
मुद्दा ठीक है लेकिन जिसके खिलाफ़ है
उससे मेरे अड़तीस साल पुराने संबंध
समर्थन भी तो मित्रता का ठहरा एक आधार
फिर भी देता मैं तुम सबका साथ लेकिन देखो
अब तो मुझे खाँसी भी आती है बहुत
हाथ काँपते हैं ज्ञापन पर दस्तखत भी मुश्किल
इधर अब तो मेरी प्रतिष्ठा भी यही हो चली है:
वरिष्ठ हैं, चुप रहते हैं, ग़म खाते हैं।
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