असुविधा ब्लॉग पर यह आलेख कवि अशोक कुमार पांडे ने दिया था।
यहॉं अपने ब्लॉग पर महज दस्तावेजीकरण के लिए और
उन साथियों के लिए जिन्होंने इसे पूर्व में नहीं पढ़ा है।
पाठ्य पुस्तकें और राष्ट्रीय कविता
(एक)
‘राष्ट्रीय कविता’ के बारे में शिक्षा प्रणाली के समकालीन सनातन स्वरूप और पाठ्य पुस्तकों के जरिए, एक विशिष्ट लेकिन संकीर्ण समझ प्रदान की जाती रही है। इस पूरी समझ में राष्ट्रवाद का उठान और उससे राजनैतिक लाभ लेने की नीयत हमेशा ही शामिल रही है। दरअसल, ‘राष्ट्रीय कविता’ की अनुदार व्याख्या और परिभाषाओं ने आजादी आंदोलन के दौरान रची गई तत्कालीन प्रासंगिक और अंग्रेज शासन के खिलाफ लिखी कविता को कुछ इस तरह अनवरत विराटता और औचित्य प्रदान किया गया मानो एक खास तरह की कविता ही राष्ट्रीय कोटि की होती है। बाद में पाकिस्तान और चीन से हुए युद्धों और फिर कारगिल संघर्ष ने जैसे बार-बार वातावरण बनाकर पुष्टि की कि सीमा पर लड़ रहे जवानों की यशोगाथा कहनेवाली, उनके संकटों का बयान, उनका हौसला बढ़ानेवाली, भौगोलिक सीमा पर आँच न आने देने की कसमें खानेवाली कविता ही राष्ट्रीय कविता है। यही वह अधूरी समझ है जो स्थापित करना चाहती है कि भौगोलिक सीमाएँ ही राष्ट्र बनाती हैं, उसके भीतर रह रहा समाज राष्ट्र नहीं है।
जैसे राष्ट्र सिर्फ सीमाओं से बनता है, किसी मनुष्य समाज से नहीं।
(दो)
धर्माधारित राजनैतिक पार्टियों के लिए तो राष्ट्रवाद एक शानदार ‘लांचिंग स्टेशन’ है। इस समझ को व्यापक करते हुए फिर हर चीज का वर्गीकरण किया गया। एक राष्ट्रीय। और दूसरा जिसे तथाकथित अर्थ में राष्ट्रीय न कहा जा सके। कविता में भी यही हुआ! इस ‘राष्ट्रीय कविता’ को कविता और कला और साहित्य की कसौटी पर कभी कसा ही नहीं गया। इस समझ के साथ देखा जाये तो फिर कबीर, तुलसी, मीर, गालिब राष्ट्रीय कविता लिख ही नहीं रहे थे और निराला, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय से लेकर चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल और अमित उपमन्यु तक तमाम कवियों की कविताएँ राष्ट्रीय कोटि में नहीं आ सकेंगी। जबकि वास्तविकता यह है कि तमाम कवि कहीं अधिक गहरे अर्थ में राष्ट्रीय कविता लिखते रहे हैं। समूची समकालीन कविता व्यापक रूप से राष्ट्रीय कविता है क्योंकि वह पूरे समाज, जनपद और आत्म को भी लक्ष्य करती है। बेहतरी का स्वप्न देखती है और इसके लिए वह धरती पर खींची गईं रेखाओं का गुणगान अथवा कल्पित गौरवशाली अतीत और जोश का वर्णन करना कतई जरूरी नहीं समझती। वह इन सबसे पार जाती है। दरअसल, हमारी राष्ट्र की समझ जब एक सामूहिक मनुष्य समाज के आधार पर, उसकी मुश्किलों और उपलब्धियों और चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए बनेगी तो कई संकटों का हल आसान होगा।
(तीन)
लेकिन यह समझ बनना तब कुछ आसान होगा जब कविता की जातीय श्रेष्ठता और योद्धाओं के गुणगान या प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं के यशोगान के शब्द-समूहों को कविता की विशेष कोटि में तबदील किए जाने का उपक्रम कुछ थमे। अभी भी हालत यह है कि पाठ्य पुस्तकों और अन्यथा शिक्षा में बच्चों को ‘देशभक्तिपूर्ण कविता’ या ‘राष्ट्रीय कविता’ के नाम से एक खास तरह की कविता का परिचय कराया जाता है। फिर सहज ही मान लिया जाता है कि समकालीन राजनीति, अन्याय, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, मीडिया, प्रदूषण, प्रशासन, शोषण या घर-परिवार की वृहत्तर मुश्किलों और हमारे समय की वास्तविकताओं को लक्ष्य कर लिखी गई कविता ‘देशभक्ति रहित’ है या ‘गैर राष्ट्रीय’ है। मानो राष्ट्र के दायरे में समाज की ये बातें और समाज के ये लोग आते ही नहीं हैं। इसका सीधा अर्थ यही निकलेगा कि राष्ट्रीय कविता का काम सामाजिक विसंगतियों, अभावों, दुरवस्थाओं को विषय बनाने की बजाय सैनिकों की, स्मारकों की, सत्ता की और राष्ट्रीय प्रतीकों की प्रशंसा करना है। तब तो निश्चित ही ‘राष्ट्रीय कविता’ की यह एक सामंती समझ है जिसका पर्दाफाश किया जाना जरूरी लगता है। जबकि ऐसी कविता महज विरुदावली तक सीमित रह सकने को अभिशप्त है।
(चार)
पाठ्य पुस्तकों, तथाकथित राष्ट्रीय फिल्मी गानों से प्रारंभ होनेवाली यह समझ हमें राष्ट्र की एक गलत और अधूरी अवधारणा तक पहुँचाती है, इससे राष्ट्रवाद के झाँसे में आना कुछ आसान हो जाता है। फिर देश ‘माँ’ की जगह ले लेता है और आस्था का ऐसा केंद्र बन जाता है जिसके बारे में, जिसके प्रतीकों के बारे में, सेनाओं के बारे में कोई भी तार्किक बातचीत या ऐतिहासिक समझ के साथ बात करना लगभग देशद्रोह जैसा प्रतीत हो सकता है। इसी समझ का नवीनीकरण आजादी के बाद समय-समय पर आकाशवाणी, दूरदर्शन, मीडिया के अन्य स्वरूपों और शासकीय प्रतिष्ठानों द्वारा साल में कम से कम दो बार तो किया ही जाता है। इसीके चलते राष्ट्र को एक शाश्वत प्रकृति का तथ्य मान लिया जाता है और महज पचास या सौ या दो सौ साल पुरानी सीमाओं की हम याद भी नहीं करते हैं और मानते हैं कि ये जो वर्तमान राष्ट्र की भौगोलिक सीमाएँ हैं, वे ही स्थायी हैं और रक्षा योग्य हैं। इन्हीं वजहों से ‘कविता की राष्ट्रीयता’ और ‘कविता की सामाजिकता’ की समझ गड़बड़ होते-होते यहाँ तक आ गई है कि जो कविता राज्य की सीमाओं की, नीतियों की, युद्धोन्मादी हिंसा की, तत्संबंधी नीतियों, पूर्वज राजनेताओं, युद्धकाल में सेनाओं की प्रशंसा करे वही राष्ट्रीय कविता है। फिल्मों और गीतकारों ने इस समझ का खासा व्यावसायिक उपयोग भी किया है।
(पाँच)
अर्थात सुभाष चंद्र बोस, भगतसिंह, महात्मा गाँधी या जवाहरलाल नेहरू पर लिखी कविता राष्ट्रीय होगी और रवीन्द्रनाथ टैगोर, दिलीप कुमार, पीटी ऊषा या मदर टेरेसा पर लिखी कविता राष्ट्रीय नहीं होगी। भाखड़ा नंगल बाँध पर लिखी कविता राष्ट्रीय होगी लेकिन नर्मदा बाँध की समस्याओं या विस्थापन को लेकर लिखी कविता राष्ट्रीय नहीं होगी। फिर यह भी सहज है कि खेल पर राष्ट्रीय कविता लिखना है तो हाॅकी पर लिखें और पक्षी चुनना है तो मोर को चुनें। अंततः यह समझ वहाँ जाएगी ही कि राजनैतिक या युद्ध के मोर्चे पर काम कर रहे हैं तो राष्ट्रीय काम हैं लेकिन साहित्य, समाज, संस्कृति, विज्ञान या अन्य मोर्चे पर किए जानेवाले काम राष्ट्रीय नहीं हैं। तब तो थल सेनाध्यक्ष को ही सर्वाधिक ‘राष्ट्रीय कार्य’ कर रहा व्यक्ति घोषित किया जाना उचित होगा। देश के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक, न्यायाधीश, डाॅक्टर, इंजीनियर लेखक, उद्योगपति या समाजसेवी के काम उस तरह राष्ट्रीय नहीं हैं। फिर उस बेचारे की क्या बिसात जो मिस्त्री है, कंडक्टर है, दुकानदार है या फेरी लगाकर सामान बेच रहा है।
(छह)
किसी भी देश में धीरे-धीरे यह राष्ट्रीय समझ, बहुसंख्यक जातीयता की समझ में तबदील हो जाती है। जैसे हमारे यहाँ ‘हिन्दुत्व’ को ही ‘राष्ट्रीयता’ की समझ में संयोजित किया जा रहा है। यही समझ अंधे राष्ट्रवाद की तरफ ले जाती है। यदि मान ही लिया जाए कि राष्ट्र मूलतः सिर्फ एक भौगोलिक सीमा है तो फिर जाहिर है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ गहरे अर्थों में एक राष्ट्रविरोधी नारा है या फिर एक साम्राज्यवादी स्वप्न। इस समझ के आधार पर फिर उचित है कि एक सैनिक की बेईमानी तो देशद्रोह मानी जाए लेकिन एक उद्योगपति, राजनेता, संस्सकृतिकर्मी या प्रशासक की बेईमानी को देशद्रोह न माना जाए। तात्पर्य यह कि एक गलत समझ को सही मान लेने से सारी सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक-नैतिक परिभाषाएँ भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो जाएँगी। इस राष्ट्रीय समझ के कारण ही कह दिया जाता है कि माक्र्सवादी विचार से प्रभावित भारतीय लोग देशभक्त नहीं हैं क्योंकि वे एक विदेशी विचारक से संचालित हैं। तब कहना प्रासंगिक होगा कि श्रीलंका या जापान के लगभग सभी निवासी देशद्रोही हैं क्योंकि वे एक विदेशी विचारक ‘महात्मा बुद्ध’ से प्रेरित होकर धार्मिक हैं। रिचर्ड एटनबरो अपने देश के प्रति द्रोही हैं कि उन्होंने तमाम देशज महापुरुषों का त्याग करते हुए गाँधी पर फिल्म बनाई। और कम्बोडिया, इंडोनेशिया वगैरह में रामलीला आयोजित करनेवाले और वे जो वहाँ रहकर महावीर, नानक या विवेकानंद आदि के विचारों के समर्थक हैं लेकिन भारतीय नहीं हैं, उन्हें भी उनके देशों द्वारा राष्ट्रविरोधी मान लिया जाना चाहिए। जाहिर है कि यह समझ पर्याप्त अराजक, अपरिपक्व और मानव विरोधी है। ज्ञान विरोधी तो है ही।
चिकित्सा, कंप्यूटर और यांत्रिकी विज्ञान की तमाम अवधारणाएँ तत्काल स्वीकार करते समय भी फिर यही विचार आना चाहिए कि ये तो अन्य राष्ट्रों से प्रसूत हुई हैं और इन्हें अपनाकर राष्ट्रविरोधी हो जाएँगे।
(सात)
कहना यह है कि सच्ची कविता अपने स्त्रोत से, उद्गम से और प्रस्थान से ही मनुष्य और समाज सापेक्ष होती है, जितनी स्थानीय होती है उतनी है वैश्विक होती है और वही उसकी सच्ची राष्ट्रीयता है। उसकी अलग से कोई ‘राष्ट्रीय’ कोटि नहीं होगी क्योंकि राष्ट्र मूलतः एक मनुष्य समाज होता है। इसलिए राष्ट्रीय कविता का अर्थ सुजलाम सुफलाम तक या वीरों की स्तुतिगान तक सीमित नहीं किया जा सकता। ऐसी कविता भी यदि कविता है तो सिर्फ कविता ही होगी। जातिप्रथा, रंग भेद, लिंग भेद, कुरीतियों, अंधवश्विासों, कूपमण्डूपताओं, सांप्रदायिकता और असमानताओं पर लिखी गई कविताएँ भी राष्ट्र सापेक्ष और राष्ट्रीय होती हैं यदि वे एक बेहतर, मानवीय, स्वस्थ, वैज्ञानिक और अन्याय रहित समाज के पक्ष में खड़ी होती हैं, अपने राष्ट्र के भीतर-बाहर उठनेवाले राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों और हलचलों से टकराती हैं, उनसे प्रतिकृत होती हैं और तथाकथित ‘राष्ट्रकवियों’ की कविता से अलग कहीं अधिक वास्तविक सवालों को उठाती हैं या उन पर विमर्श संभव करती हैं। अपनी काव्यकला के साथ और संवेदना और भाषा की शक्तियों के साथ। या यों ही अपनी गहन व्याकुल प्रखरता के साथ।
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1 टिप्पणी:
जबरदस्त आलेख ।
परंतु इतना तो है कि तथाकथित राष्ट्रीय कविताओं के समतुल्य प्रभावोत्पादकता अन्य कविताओं में कम ही देखने को मिलता है ।
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