अशोक नगर इप्टा और प्रलेस के साथी, जिनमें हरिओम राजौरिया, पंकज दीक्षित, राजेश खैरा, विनोद शर्मा जैसे दसियों साथी शामिल हैं, वे जनगीत गायन में इतनी भावना, हार्दिकता और ऊर्जा भरते हैं कि वह सुनने का एक अनुभव हो जाता है। उसी तरह के अनुभवों को स्मरण करते हुए यह कविता उन्हें समर्पित है। सादर और सप्रेम।
जनगीत
(`इप्टा´ अशोक नगर के साथियों के लिए)
जिन तीन लोगों का स्वर अच्छा नहीं है
और वे दो जो बेसुरे हैं
ये सब दूसरी तमाम आवाज़ों के साथ मिलकर
कितने सुरीले लग रहे हैं
और अब एक तूफान खड़ा कर रहे हैं
उनकी उठान देखिए, वे नक्षत्रों तक पहुँच गए हैं
एक शब्द के फेंफड़ों में कितने लोग फूँक रहे हैं अपनी साँस
उस शब्द की छिपी ताकत दिखने लगी है
सोयी हुई पंक्तियों की अँगड़ाइयों ने रच दी है नयी देहयष्टि
एक पान की दुकान से निकलकर आया है
दूसरे की आवाज़ में सीमेंट की धूल की खरखराहट है
और एक बाँसुरी जैसे शरीर में से
नगाड़े की आवाज़ पैदा कर रहा है
जिंदगी ने खरोंच दी है उसकी आवाज
और उसे पता ही नहीं अब वह क्या कमाल कर रहा है
चीजों पर जमा धूल गिर गई है
और वे चमक रही हैं धातुओं की तरह
मनुष्य ही है जो गा सकता है गीत
दुर्दिनों के बरअक्स रखता हुआ अपने स्वप्न
कि बस अब सब कुछ ठीक होने को ही है
और इसे कोई ईश्वर वगैरह ठीक नहीं करेगा
आरोह में यह पुकार जो प्रार्थना की खाई में नहीं गिरती
यहाँ याद आती है अनायास ही गोर्की की यह बात :
`अगर तुममें वह शक्ति नहीं
और वह कुछ करने की तीव्र इच्छा नहीं
जिसकी शिक्षा देता है यह गीत
तो इसे गाने भर से कुछ नहीं मिलनेवाला !´
संगीत और शब्दों की जुगलंबदी के बहाने
यह याद दिलाने के लिए शुक्रिया
कि उठकर चलने का एक और मौका
ठीक हमारे सामने है।
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10 टिप्पणियां:
जनगीत को कविता ने चित्रित कर दिया है।
शुक्रिया अम्बुज जी
अशोकनगर इकाई के प्रति आपका यह लगाव भरोसा भी देता है और जिम्मेदारी का भी अहसास करता है.
कुमार भाई आपकी यह कविता हरिओम,सीमा भाभी ,पंकज विनोद ,राजेश और अन्य सभी साथियो की मेहनत को सलाम है । इस समूह की एक सी.डी. भी उपलब्ध है । जिसके गीत गाते हुए आज भी हम लोग आन्दोलनों मे और जुलूसों में अपनी मुठ्ठियाँ हवा में तानते हैंं ।
कई बार अशोकनगर के दोस्तों के साथ जनगीत रैली का हिस्सा बनने का मौका मिला है। दूसरी जगहों पर भी। उस वक़्त एक अलग ही जुनून महसूस होता है।
पर एक चिन्ता है। नये जनगीत बिल्कुल नहीं आ रहे… क्या अब इसके लिये नयी कोशिशें नहीं होनी चाहिये ताकि जनगीत अपने समय के साथ चल सकें।
कविता हमेशा की तरह अद्भुत है…
आपकी कविता ने हिन्दी ब्लॉग जगत को समृद्ध कर दिया. बहुत-बहुत धन्यवाद.
'मनुष्य ही है जो गा सकता है गीत
दुर्दिनों के बरक्स रखता हुआ अपने स्वप्न
कि बस अब सब कुछ ठीक होने को ही है
और इसे कोई ईश्वर वगैरह ठीक नहीं करेगा'
अम्बुज जी, बहुत अच्छी पंक्तियाँ!
बहुत बढिया रचना है बधाई।
लुप्त होते जनगीतों के लिए एक महत्वपूर्ण कविता.
- प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
शानदार! हमें गर्व है कि आप हमारे कविता के बड़े भाई हैं.
bahut bahut hi achchha hai ambuj bhai apko sadhuwad
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