घास की पत्तियाँ
घास को लेकर संसार में अनेक कविताऍं लिखी गई हैं लेकिन 1918 में कार्ल सैन्डबर्ग द्वारा लिखी गई कविता शायद सर्वोपरि है। इसके बाद
जो भी कविताऍं इस विषय पर लिखी गईं, उनमें सैन्डबर्ग की इस कविता का प्रभाव चला ही आता है। संक्षिप्त होकर भी कोई कविता अपनी कुल आभा, कथ्य, संप्रेषण
और काव्य-कला में कितनी परिपूर्ण हो सकती है, सैन्डबर्ग की यह कविता उसका एक उदाहरण है।
(प्रेमिल और रोमैंटिक रूप में जरूर हिन्दी की ही
कविताओं में कुछ दृश्य हैं जैसे, अज्ञेय की 'हरी घास पर क्षण भर', शमशेर बहादुर
सिंह की 'टूटी हुई बिखरी हुई' या ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'ट्राम में एक याद' में की कुछ पंक्तियॉ- आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक/ उस पिकनिक
में चिपकी रह गई थी,/ आज तक मेरी नींद में गड़ती है। वहॉं उगी है घास वहॉं चुई
है ओस वहॉं किसी ने निगाह तक नहीं डाली है। आदि। घास के दूसरे पहलुओं पर भी
कुछ कविताएँ हिंदी में हैं जो उतनी प्रभावी या महत्वपूर्ण नहीं हैं।)
कार्ल सैन्डबर्ग की कविता के अलावा तीन कविताऍं,
जिनका शीर्षक 'घास' ही है, यहॉ दी जा रही हैं- तदेऊश रूजेविच, पाश और नरेश सक्सेना
की ये कविताऍं, इस क्रम में कुछ बता सकती हैं। क्या??
प्रभाव, प्रेरणा, परछाईं या छायाप्रतियाँ। किसी भी सावधान पाठक के लिए यह बहुत स्पष्ट है। हालॉंकि, इससे किसी भी कवि का मान कम नहीं होता, सिवाय इसके कि एक श्रेष्ठ पूर्वज, श्रेष्ठ पूर्वज ही बना रह सकता है। या वॉल्ट व्ह्टिमैन के अमर कविता संग्रह के नाम से प्रेरित होकर कह सकते हैं कि ये सब कविताऍं 'लीव्ज ऑव ग्रास' ही हैं।
प्रभाव, प्रेरणा, परछाईं या छायाप्रतियाँ। किसी भी सावधान पाठक के लिए यह बहुत स्पष्ट है। हालॉंकि, इससे किसी भी कवि का मान कम नहीं होता, सिवाय इसके कि एक श्रेष्ठ पूर्वज, श्रेष्ठ पूर्वज ही बना रह सकता है। या वॉल्ट व्ह्टिमैन के अमर कविता संग्रह के नाम से प्रेरित होकर कह सकते हैं कि ये सब कविताऍं 'लीव्ज ऑव ग्रास' ही हैं।
सैन्डबर्ग का फौरी अनुवाद मेरा है। तदेऊश
रूजेविच की अनूदित कविता 'जलसा-4' से साभार। बाकी दोनों, कवियों के उपलब्ध संकलनों
से।
इनका आनंद लें।
घास
कार्ल सैन्डबर्ग
लाशों का ऊँचा ढेर लगा दो ऑस्ट्रलिट्ज और
वाटरलू में
उन्हें धकेल दो कब्रों में और मुझे मेरा काम
करने दो-
मैं घास हूँ, मैं सब कुछ ढक लूँगी
और लगा दो उनका ऊँचा अंबार गेटिसबर्ग में
और ऊँचा ढेर लगा दो उनका ईप्राह और वरडन में
फिर धकिया दो उन्हें गढ्ढों में और मुझे मेरा
काम करने दो
दो साल, दस साल, और मुसाफिर पूछेंगे कण्डक्टर
से :
यह कौन सी जगह है?
हम अभी कहॉं हैं?
मैं घास हूँ
मुझे मेरा काम करने दो।
0000
घास
तदेऊश रूजेविच
मैं उगती हूँ
दीवारों की संधि में
वहॉं जहॉं वे
जुड़ती हैं
वहॉं जहॉं वे आ मिलती हैं
वहॉं जहॉं वे मेहराबदार हो जाती हैं
वहॉं मैं बो देती हूँ
एक अंधा बीज
हवाओं का बिखेरा गया
धैर्य के साथ मैं फैलती हूँ
सन्नाटे की दरारों में
मुझे इन्तजार है दीवरों के गिरने
और जमीन पर लौटने का
तब मैं ढक लूँगी
नाम और चेहरे।
घास
पाश
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो होस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोंपडि़यों पर
मेरा क्या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज पर उग आऊँगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना जिला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल, दस साल बाद
सवारियॉं फिर किसी कंडक्टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहॉं हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा।
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घास
नरेश सक्सेना
बस्ती वीरानों पर यकसॉं फैल रही है घास
उससे पूछा क्यों उदास हो, कुछ तो होगा खास
कहॉं गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास
सारी दुनिया को था जिनके कब्जे का अहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास
धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास
फिर भी कदमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास
धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहॉं थी, बाद में होगी घास।
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3 टिप्पणियां:
इन तीनों कविताओं को पढते हुए याद आई किश्वर नाहिद की - घास बस मेरी तरह है... इन तीनों के बीच कितनी खूबसूरत लगी वह।
बढ़िया।
कार्ल सैंडबर्ग की कविता घास को समय के भौतिक रूप में व्यक्त करती है।
कितना अजीब है ना इसी घास को हम अलग अलग तरीकों से चर जाते हैं।
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