सात-अाठ साल पहले 'वसुधा' में एक कविता के साक्ष्य से स्तंभ में जब ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'ट्राम में एक याद' पर अपना पाठ लिख रहा था, तब मैंने अपनी पसंद की प्रेम कविताओं का जिक्र किया था। सुन्दरकाण्ड में विन्यस्त कुछ पंक्तियों के आधार पर निहित तुलसीदास की प्रेम कविता, नागार्जुन की 'वह तुम थीं' और शमशेर बहादुर सिंह की 'टूटी हुई, बिखरी हुई'। तब से ही नहीं बल्कि करीब तीस बरस से यह सोचता रहा कि सुन्दरकाण्ड से उन पंक्तियों को एक साथ रख दिया जाए, जो मुझे एक महान राग-वियोगजन्य प्रेम कविता का पाठ उपलब्ध कराती रही हैंं।
इस कविता में उपमा, उत्प्रेक्षा, आलंबन और रूपक के उदहारण तो हैं ही, कहन की अद्भुत भंगिमाऍं भी हैं। कोमल-नए पत्तों की लालिमा से अग्नि आभास और चंद्रमा के ताप को सीता तथा राम द्वारा किंचित फर्क से देखना भी दृष्टव्य हो सकता है। यानी एक ही उपमा के दो रंग। दो निष्कर्ष। यह स्मरण रहे कि इन पंक्तियों में जो भाव हैं वे बाद की हिन्दी-उर्दू कविता में, फिल्मी गानों तक में कई तरह से आ चुके हैं, और अब कुछ परिचित लग सकते हैं, लेकिन मेरे पाठक की निगाह में तुलसीदास की यह कविता अपनी तरह से अनूठी और नवोन्मेषी है।
तुलसीदास की प्रेम कविता
(सुन्दरकाण्ड के स्थलों
से निकसित)
ये नये कोमल पत्ते अग्नि समान
विरह से व्याकुल सीता
का वर्णन
असह्य विरह की वेदना से तो अग्नि-समाधि लेना ही बेहतर है
लेकिन यहाँ आग कहाँ से मिलेगी। आकाश में अंगारे प्रकट हैं
लेकिन एक भी तारा मेरे पास, धरती पर टूटकर नहीं
आता।
चंद्रमा अग्निमय है लेकिन वह भी मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता।
अशोक वृक्ष, तू मेरी विनती सुन, मेरा शोक हर ले,
इस तरह अपना नाम सार्थक कर दे।
तेरे ये नये कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं,
इनसे ही मुझे अग्नि दे और मेरे विरह रोग का निदान कर दे।
दोहा 11-
चैपाई 1 से 6 के अंशों से।
क्या कभी वह समय भी आएगा?
विरह वेदना के दौरान
सीता की हनुमान से मुलाकात
राम का जन (दूत) जानकर आँखों में आँसू आ गए और शरीर पुलकित हो गया
कि मैं तो विरहसागर में डूब रही थी, तुम मेरे लिए जहाज हो
गए।
बताओ, कोमल चित्तवाले, कृपा करनेवाले राम ने
मेरे लिए यह कैसी निष्ठुरता धारण कर ली है?
सहज वाणी से सबको सुख देनेवाले वे क्या कभी मेरी याद करते हैं?
क्या कभी वह समय भी आएगा जब उनके
साँवले, मृदुल शरीर को देखकर मेरी आँखों
को शीतलता मिल सकेगी??
(भावातिरेक में बोल भी नहीं निकल रहे हैं, बस आँखें आँसुओं से भर गई हैं) -
हा नाथ, तुमने मुझे बिलकुल ही बिसरा दिया
है!
दोहा 13-
चैपाई 1 से 4 के अंशों से।
जो हर चीज हित करती थी वही देती है पीड़ा
राम की ओर से कहे गए
हनुमान के शब्द
हे मेरी प्रिय सीते, तुम्हारे वियोग में मेरे
लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं
वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान हैं और रात कालरात्रि की तरह
और चंद्रमा सूर्य के समान तपता है
कमल का जंगल भालों का अरण्य लगता है, बादल मानो गरम तेल बरसाते
हैं,
जो हर चीज हित करती थी, वही अब पीड़ा देने लगी
है,
त्रिविध (शीतल, मंद और सुगंधित) वायु, साँप के श्वास
की तरह लगती है,
यह सब दुख किसी को कह देने से कुछ कम हो सकता है
लेकिन कहूँ किससे, ऐसा आत्मीय कोई दिखता
भी नहीं,
तेरे-मेरे प्रेम का रहस्य बस एक मेरा मन ही जानता है
और वह मन सदा तेरे पास रहता है,
तुम इतने में ही मेरे प्रेम-रस को समझ लो।
दोहा 14-
चैपाई 1 से 4 के अंशों से।
नयनों का अपराध कि इनमें आप बसे हैं
राम को सीता का विरह
हाल सुनाते हुए हनुमान
आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है, आपका ध्यान ही किवाड़
है,
आँखें आपके चरणों के ध्यान में जड़ी हैं,
यही ताला है,
प्राण किस रास्ते से निकलें!!
मेरा एक दोष अवश्य है कि आपसे वियोग होते ही प्राण क्यों न निकल गए
लेकिन यह नेत्रों का अपराध है जो प्राण निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं,
कि इनमें आप बसे हुए हैं
विरह अग्नि समान है, शरीर रूई है और यह श्वास
पवन है-
इस संयोग से यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है लेकिन
अपने हित के लिए ये आँखें पानी ढहाती रहती हैं
इसीसे विरह की अग्नि भी इस देह को जला नहीं पा रही है।
(सीता की विपत्ति विशाल है, उसे न कहने में ही भला है।)
दोहा 30 एवं चैपाई 1 से 5 के अंशों से।
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अब ये सभी दोहा, चौपाइयाँ एक साथ, जो बेहतर ढंग से
आकुलता और प्रेम को अभिव्यक्त करती हैं, और इन्हें
एक पूरी वियोगजन्य प्रेम कविता की तरह पढ़ा जा सकता है-
(तजौं देह करु बेगि उपाई, दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई।).......
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला, मिलहि न पावक मिटिहि
न सूला।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा, अवनि न आवत एकउ तारा।
पावकमय ससि स्रवत न आगी, मानहुँ मोहि जानि हतभागी।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका, सत्य नाम करु हरु मम
सोका।
नूतन किसलय अनल समाना, देहि अगिनि जनि करहि
निदाना।
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी, सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना, भयहु तात मो कहुँ जलजाना।
कोमलचित कृपाल रघुराई, कपि केहि हेतु धरी निठुराई।
सहज बानि सेवक सुखदायक, कबहुँक सुरति करत रघुनायक।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता, होइहहिं निरखि स्याम
मृदु गाता।
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
कहेउ राम बियोग तव सीता, मो कहुँ सकल भए बिपरीता।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू, कालनिसा सम निसि ससि
भानू।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा, बारिद तपत तेल जनु बरिसा।
जे हित रहे करत तेइ पीरा, उरग स्वास सम त्रिबिध
समीरा।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई, काहि कहौं यह जान न कोई।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मनु मोरा।
सो मन सदा रहत तोहि पाहीं, जानु प्रीति रसु एतनेहि
माहीं।।
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट,
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।
अवगुन एक मोर मैं माना, बिछुरत प्रान न कीन्ह
पयाना।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा, निसरत प्रान करहिं हठि
बाधा।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा, स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी, जरैं न पाव देह बिरहागी।
सीता कै अति बिपति बिसाला, बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।
00000 (श्रीरामचरित मानस, गीताप्रेस गोरखपुर, 46वाँ संस्करण)
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
maine aapki yah post aaj dekhi aur yah kammal hai! aapka yah roop bhi bahut sukhad hai!
खूब...
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