20 मई 2002
प्रतिबद्धता को लेकर कुछ लोग लगातार इस तरह बात करते हैं मानो प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है। जबकि सीधी-सच्ची बात है: कि प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से। प्रतिबद्धता वैचारिक गतिशीलता को स्वीकार करती है, कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है। प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है, कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठी भाव। प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं, कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएँ बनती ही है। प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार। प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक।
जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैं, वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं।
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6 टिप्पणियां:
बात जरा आगे बढाइएगा। प्रतिबध्दता निश्चय ही समझ से पैदा होती है किन्तु आगे जाकर वह कट्टरता में बदल जाती है।
प्रिय विष्णु भाई,
समझ का स्तर लगातार बनाये रखना पड़ता है, बढ़ाना पड़ता है। इसलिए ही विमर्श, संवाद की जरूरत पड़ती है। जैसे लोकतांत्रिक समझ को नहीं बनाये रखेंगे तो उसमें तानाशाही आ सकती है। जैसे स्वतंत्रता को सही मायनों में ग्रहण नहीं करेंगे, नहीं समझेंगे तो अराजकता या दासता आ सकती है। लेकिन इसका यह निष्कर्ष कतई नहीं निकाला जा सकता कि लोकतांत्रिकता और स्वतंत्रता, क्रमश: तानाशाही एवं अराजकता की जनक हैं या ये अपने आप में कमतर मूल्य हैं।
इसी तरह प्रतिबध्दता का रास्ता कटटरता की तरफ नहीं जाता, अविवेक का और नासमझी का रास्ता ही उधर जा सकता है। यह अविवेक किसी भी सुंदर, मानवीय, मुक्तिकामी और परिवर्तनकारी मूल्य के साथ जुड़कर विध्वंसक हो सकता है।
निश्चय ही प्रतिबध्दता एक सकारात्मक और मुक्तिकामी जीवन मूल्य है।
ambuj ji aapane apani diry ke ek hisse me bahut achchhe dhang se prtibaddhta ko samjhaya hai.
vishnu ji ki bat jawab aapane jis sahaj saral dhang se diya hai.
aapane siddh kar diya apani tippani me ki pratibaddhata kya hoti hai.
badhai.
अम्बुज जी
यह जान कर खु’ाी हुई कि आप भी ब्लाग पर उपलब्ध हैं। प्रतिबद्धता और कट~टरता में अंतर समझाती हुई आप की टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है। मगर मैं पूछना यह चाहता हूं कि वे कौन लोग हैं जो कट~टरता और प्रतिबद्धता में अंतर नहीं करना चाहते ? उनके तर्कांे को भी यदि आप सामने रखते तो आप के तर्काें की तुलनात्मक पड़ताल आसान होती। बहर हाल, हम कहना यह चाहते हैं कि जहां तर्काें की सीमाएं समाप्त हो जाती हेेैं और सवाल फिर भी अनसुलझा रह जाता ह,ै तो वेेैसी द’ाा में हमारे पास एक ही रास्ता बच रहता है-- इतिहास के अनुभवों को याद करना और देखना कि व्यवहार में क्या घट चुका है। याद करना मु’िकल नहीं है कि साहित्य में प्रतिबद्धता का नारा जिन लोगों द्वारा दिया गया था, वे कौन लोग थे, और प्रतिबद्धता के नाम पर आगे बढ़ते हुए वे जहां पहुंचे वह कौन सा विचार था।पूछा तो यह भी जा सकता है कि जिन लेागों द्वारा प्रतिवद्धता का नारा दिया जा रहा था उनका वैचारिक प्रस्थान क्या था? यह अलग से कहने की जरूरत नही है कि आप जिस कट~टरता की बात कर रहे हैं, उसका एक दूसरा छोर भी है--बाम कट~टरता का छोर। कट~टरता का यह एक ऐसा छोर है जो दक्षिण पंथी कट~टरता का विरोधी तो है लेकिन लोकतांत्रिकता उसका मूल्य कभी नहीं रहा। कम से कम उस रूप में तो विलकुल ही नहीं जिस रूप में आप ने प्रतिबद्धता को परिभाषित किया है। दक्षिण पंथी कट~टरता और बामपंथी प्रतिबद्धता में बे’ाक बहुत बड़ा फर्क है। लेकिन वामपंथी प्रतिवद्धता भी अपनी अंतर्वस्तु में एक किस्म की कट~टरता का ही दूसरा नाम है। प्रतिबद्धता के मामले में आप ने समझ की गति’ाीलता का जो तर्क दिया है वह अगर सचमुच गति’ाील है तो प्रतिवद्धता जेैसी किसी अवधारणा की आव’यकता नहीं रह जाती। प्रतिबद्धता की अवधारणा गति’ाीलता की अवधारणा को कहीं न कहीं वाधित अव’य करती है। क्यों कि वह अपनी बुनियादी प्रतिज्ञा में एक किस्म के अपरिवर्तनीय विचार से प्रेरित होती है। लेाकतांत्रिक होना अपने आप में प्रतिबद्ध होना नहीं तो और क्या है ? और लोकतांत्रिकता अगर हमें प्रतिबद्ध नहीं बना पाती तो प्रतिबद्धता हमें लोकतांत्रिक कैसे बनाएगी ? दूसरी बात यह कि यह यूं ही नही है कि इतिहास एक दोैर में ‘प्रतिबद्धता’ के जिस विचार का स्वागत किया था, वही प्रतिबद्धता अपनी ऐतिहासिक परिणतियों के कारण आज संदेहास्पद हो उठी है ओैर आप को उसके पक्ष में युद्ध करना पड़ रहा है। मेरा खयाल है कि प्रतिबद्ध होना आस्थावान होने का ही दूसरा नाम है। ओैर आस्था अपने आप में एक ऐसा प्रत्यय है जो वैचारिक जड़ता की ओर ले जाता है। मैं यह तो नहीं मानता कि माक्र्सवाद वैचारिक रूप से जड़ बनाता है, लेकिन हुआ यही है कि दक्षिणपंथ की मुखालफत की हड़बड़ी में हमारी वामपंथी वैचारिकता नें प्रतिवद्धता का जो नारा दिया वह अंतत: तो कट~टरता का ही वामपंथी पर्याय सिद्ध हुआ। हमें यदि प्रतिवद्धता ओैर कट~टरता में फर्क सावित करना ही है तो इसके लिए इतिहास के देाषों से मुक्त होना होगा।
प्रतिबद्धता कट्टरता मे तभी बदलती है जब विचार बदलते हुए समय के साथ-साथ नही चलते। मूल सिद्धान्त निश्चित रूप से स्थिर होते हैं परन्तु एक गतिशील समाज में विचार और कार्यप्रणाली स्थैतिक सन्तुलन में कैसे रह सकते हैं ?
कपिलदेव जी जिस तथाकथित वाम्पन्थी कट्टरता की बात कर रहे हैं वह कभी भी अपनी अन्तर्वस्तु मे दक्षिणपन्थी कट्टरता से हज़ार गुना ज़्यादा लोकतान्त्रिक होती है। दरअसल हमारे समाज की उत्पीडक सामाजिक सरन्चनाये और सामाजिक आन्दोलनो के सतत अभाव ने वामपन्थी आन्दोलनो को भी प्रभावित किया है। अगर ग्राम्शी की शब्दावली का प्रयोग करे तो यहाँ passive क्रान्ति से ही सत्ता हस्तांतरण ही नही सामन्तवाद से पूँजीवादी सन्क्रमण भी हुआ। लोकतान्त्रिकता उस तरह जीवन मूल्यों में शामिल ही नही हो पायी।
फिर भी अगर इस देश में समानता,जनतन्त्र और प्रबोधन की बहस भी शुरू हुई तो वामपन्थ के प्रभाव में ही। दक्षिण्पन्थ तो अपने मूल मे ही इन प्रवृतियो का विरोधी है जहां बहस मुबाहिसो तथा विचार विमर्श की कोई जगह नही होती।
प्रतिबद्धता के साथ दो खास बाते और हैं - पहली कि किसी भी व्यक्ति में यह होती ही है, चाहे वामपन्थ के प्रति हो या दूसरी किसी विचारधारा के प्रति हो। यदि ऐसा नही है तो वह सिर्फ़ अवसरवादी,(अवसरो के प्रति अपने स्वार्थ से सँचालित प्रतिबद्धता) हो सकता है। दूसरी- यह आपके भीतर वैसे ही घुलमिल जाती है जैसे दूध मे शक्कर्। इसका प्रदर्शन इस पर शन्का उत्पन्न करता है।
इस महत्वपूर्ण विषय को बहस के केन्द्र मे लाने के लिये अम्बुज जी का आभार।
कपिल जी और अशोक पाण्डेय ने इन पंक्तियों पर विमर्श की दिशा दी है। यह सुखद है। धन्यवाद।
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