डायरी का एक और अंश। कि कुछ बातचीत जारी रहे।
04.09.97
`सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट´ -सर्वोपयुक्त का बचना, `प्रजातियों के विकास´ के महान वैज्ञानिक डार्विन के इस सिद्धांत को लोग इधर `सभ्यता और समाज के विकास´ के संदर्भों में उदाहरण की तरह देने लगते हैं। यह आधारभूत स्तर पर कुतर्क है।
`समाज का विकास´ और `प्रजातियों का विकास´ दो अलग-अलग चीजें हैं। अब जैसे पूँजीवादी व्यवस्था के साँचे में देखा जाए तो यही सिद्धांत कितना भयावह लगने लगता है। स्पष्ट है कि जो असहाय है, शोषित है, निर्धन है और निर्बल है, वह पूँजीवादी समाज में सर्वोपयुक्त हो नहीं सकता। तब वह कैसे बचेगा ! प्राकृतिक विकासमान व्यवस्था के इस सिद्धांत को एक अप्राकृतिक, कृत्रिम व्यवस्था में रख भर देने से उसके मायने और व्यंजना कितनी बदल जाती है। बैंक में काम कर रहे हमारे मित्र कहते हैं कि बचेगा बिलकुल बचेगा। जो असहायों में, निर्बलों और निर्धनों में सर्वाधिक उपयुक्त होगा, वह बच जाएगा। तर्क है। लेकिन यह तर्क पूँजीवादी समाज के दर्शक-नागरिक की तरफ से है। जबकि बहुत साफ है कि जो बचेगा वह 'जैविक रूप से एक सबसे सहनशील' आदमी भर होगा। लेकिन क्या वह समाज के ताकतवर और आत्मीय हिस्से की तरह बचेगा ?
जो बचेगा वह `कोरू´ होगा। मुझे हावर्ड फास्ट के (अमृतराय द्वारा अनूदित उपन्यास) `आदिविद्राही´ के उस प्रसंग की याद आ रही है जहाँ `कोरू´ का मतलब बताया गया है। यानी तीन पीढ़ियों का गुलाम। सोने की खानों में बेहद मुश्किल परिस्थतियों में काम कर सकने वाले गुलाम के बेटे का बेटा। इजिप्ट की जबान में एक तरह का गलीज जानवर, पेट के बल घिसटने वाला। एक ऐसा जानवर जिसे दूसरे जानवर भी नहीं छूते। इतनी कठिन परिस्थितियों में (और न्यूनतम से भी जो कुछ कम हो सकता है उतना खाना खाते, पानी पीते और नींद लेते हुए) सैंकड़ों में से एकाध गुलाम बच पाता है और ऐसे बचे हुए गुलामों की तीसरी पीढ़ी। जो विद्रोह के बारे में सोच ही नहीं सकती। वह अपने को मनुष्य ही नहीं मान सकती। मुक्ति का कोई स्वप्न उसके पास रह नहीं जाता। यह होगी वह `कोरू´ प्रजाति, जो असहायों, अशिक्षितों और गरीबों, श्रमिकों की तीसरी पीढ़ी के रूप में, यदि `सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट´ के चलते, पूँजीवादी समाज में बच भी पाई तो ! मालिकों के लिए तो इस प्रजाति की जरूरत हमेशा से है। क्योंकि यह अपनी मुक्ति के बारे में विचार ही बमुश्किल कर पाएगी और कोई भी संभव मुक्तिदाता उन्हें संगठित ही कैसे कर पाएगा !
यह दास प्रथा का कितना अधिक परोक्ष और अमानवीय संस्करण है। अपने आप को न्यायपूर्ण घोषित करता हुआ। गरीबों को, मजदूरों को, दु:खीजन को सिर्फ अकर्मण्य बताता हुआ।
मेरा देश इसी रास्ते पर चल निकला है। तत्काल मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखता।
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पुनश्च् !
इस `कोरू´ शब्द को हम यदि सरकारी नौकरियों और जीवन के अन्य व्यवसायों में जुटे शोषण तंत्र के हिस्से हो गए लोगों पर भी लागू करें तो बड़ी मजे़दार और व्यावहारिक व्यंजना बनती है। जैसे `कोरू साहूकार´, `कोरू राजनीतिज्ञ´ और `कोरू आई.ए.एस.´ ! लेकिन ये खास लोग हर पीढ़ी के साथ कितने संगठित, चालाक और भयावह होते जाते हैं। एक पूँजीवादी व्यवस्था के सुचारू और निर्विघ्न रूप से चालन के लिए इन `कोरू अत्याचारियों´ और उन `कोरू गुलामों´- दोनों की कितनी जरूरत है !
दोनों में से कोई मनुष्य नहीं रह पाता है। यह कितना भयानक है।
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11 टिप्पणियां:
अंबुज जी,
आपके ब्लॉग पर डार्विन के सिद्धांत के गलत इस्तेमाल का खंडन पढ़कर अच्छा लगा
आपने वाकई मुद्दे की बात उठाई है, इस तरह की चीज़ें लगातार लिखते रहिए, क्योंकि आज महान वैज्ञानिक खोजों और विचारों को विकृत करने और उन्हें बिसरा देने की साजिश-सी रची जा रही है...
एक पूँजीवादी व्यवस्था के सुचारू और निर्विघ्न रूप से चालन के लिए इन `कोरू अत्याचारियों´ और उन `कोरू गुलामों´- दोनों की कितनी जरूरत है !
दोनों में से कोई मनुष्य नहीं रह पाता है। यह कितना भयानक है।
waah...kya kamal ki chintan prastut kee hai.thanks alot
एक पूँजीवादी व्यवस्था के सुचारू और निर्विघ्न रूप से चालन के लिए इन `कोरू अत्याचारियों´ और उन `कोरू गुलामों´- दोनों की कितनी जरूरत है !
दोनों में से कोई मनुष्य नहीं रह पाता है। यह कितना भयानक है।
waah...kya kamal ki chintan prastut kee hai.thanks alot
सही ,डार्विन सामजिक व्यवस्था पर लागूं नही होते -मगर यह भी सही है की सांस्कृतिक परिस्थितिया मनुष्य के जीन पर प्रभाव दाल रही हैं -दूध पसंद करने वाली जातियों में लैक्टोज की सहनशीलता का जीन विकसित हो गया है जबकि यह जीन मूल अमेरकी लोगों में नही है !
ambuj ji aapane vakai sahi kaha hai. ajjkal siddhanton par kutark pesh karane walon ki kami nahin hai.
darvin ko yaad karate huye `सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट´ par aapane behatareen likha.
आपने बिल्कुल सही फ़रमाया। निरपेक्ष लगने वाले सिद्धान्तो की भी अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताये होती है जिन्हे सह्जबोध मे स्थापित कर दिया जाता है।
20वी सदी के तमाम ऐसे सिद्धान्तो की साफ़ तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति पक्षधरता है।
एक वैकल्पिक व्यव्स्था के पैरोकारो को इन सबका रेशा रेशा खोलना पडेगा
प्रकृति में देखें तो कमजोर से कमजोर प्राणी को भी थोड़ी बहुत जगह मिल जाती है. इस तरह देखें तो सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट सिद्धांत भी बलशाली के ही पक्ष में लगता है. तथाकथित ज्यादा पढ़े लिखे समाज की तो बात ही क्या, वहां तो हर चीज अपने हिसाब से जस्टीफाई की जाती है.
जबकि बहुत साफ है कि जो बचेगा वह 'जैविक रूप से एक सबसे सहनशील' आदमी भर होगा। लेकिन क्या वह समाज के ताकतवर और आत्मीय हिस्से की तरह बचेगा ?
एक बहुत बडा सवाल आपने सामने रखा है. और इस पर चिन्तन व इसका जवाब खोजना जरूरी है.
namaskaar.....
हम जानते हैं अंबुज जी कि आज की दुनिया में कायर और कमजोर ही बच पाते हैं. वे बेचारे कोशिश करते हैं कि किसी तरह अपनी नस्ल बचाए रख सकें, इस प्रक्रिया में कथितवर खत्म हो रहे हैं. एक भयावह समाज में जी रहे हैं हम.
अच्छा लगा विश्लेषण।
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