सोमवार, 19 नवंबर 2012

एक कवि ऋणग्रस्‍त ही होता है


यह साक्षात्‍कार आईसाहित्‍य http://isahitya.com  द्वारा करीब एक साल पहले लिया गया था। इसे आज अचानक पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसे ब्‍लॉग पर रखा जाए। किंचित संपादित रूप में यह यहॉं हैं। पूरी बातचीत के लिए इसका लिंक है- http://isahitya.com/index.php/2011-09-20-18-35-32/interviews/222-talk-to-isahitya

 कैसा रहा आपका अब तक का सफर एक कवि , एक लेखक के तौर पर? शायद रचनाकर के लिए कभी संतुष्टि होना संभव नहीं हैं लेकिन फिर भी आप अब तक के सफर को किस तरह देखते हैं?

 यह यात्रा है और जारी है। इसकी सुंदरता, उपलब्धि और संतुष्टि अनवरत होने में ही है। 
 हम आपके पुराने समय में लौटना चाहेंगे , क्या आप  हमेशा से लिखना चाहते थे क्या शुरुआत में ही आपने सोच लिया था की आप आगे चल कर साहित्य को गंभीरता से लेंगे ? उस कहानी के बारे में जानना चाहेंगे जिसने आपको एक रचनाकार बना दिया ?
 कहानी, कविता पढ़ना चौंकाता था, जीवन में कुछ अलग रसायन पैदा करता था। चीजों के बारे में विचार बनने लगते थे और लगता था कि अब अपने आसपास को लेकर, इस दुनिया-जहान के बारे में, मैं अन्य समवयस्कों की तुलना में कुछ अधिक वाक्य बोल सकता हूँ। लेकिन लिखना कठिन काम लगता था। लगभग 26 वर्ष की आयु में लगा कि साहित्य को कुछ गंभीरता से लिया जाना चाहिए। साहित्य में मेरा प्रवेश कुछ उम्रदराज होकर ही हुआ है।
‘साक्षात्कार’ के कवितांक और ‘पहल’ के कुछ अंकों से जब परिचय हुआ तो बेहतर साहित्य से मुलाकात हुई। फिर अनेक पत्रिकाएँ और किताबें। लगभग चार-पाँच साल तक खूब पढ़ना हुआ। इसी के साथ लिखना भी हुआ। मेरे कस्बे के जीवन में मुझे अनेक अनुभव और दृश्य ऐसे लगते थे जिनका कविता में कोई इंद्राज नहीं हुआ था। मैं व्यग्रता से भरकर, संवेदित होकर लिखता चला गया। अनेक कविताएँ लिखीं और बरसों तक कहीं नहीं छपीं। जहाँ भी भेजो वहाँ से तीन-चार दिन में ही लौटकर आ जाती थीं, जैसे वे मुझे छोड़कर कहीं जाना ही नहीं चाहती थीं। एकाध अपवाद भी हुआ।
 1988 में ‘वसुधा’ ने मेरी चैबीस कविताओं की काव्य पुस्तिका ‘सुनेंगे हम फिर’ प्रकाशित की। और इसी वर्ष ‘हंस’,‘साक्षात्कार’ और ‘दस्तावेज’ ने भी कुछ कविताएँ छापीं। इससे दृश्य एकदम परिवर्तित हो गया। मुझे अनेक पत्र मिले। शायद पाँच-छह सौ से ज्यादा चिट्ठियाँ आई होंगी। और 1989 में इन्हीं कविताओं में से ‘किवाड़’ को, जो ‘साक्षात्कार’ में प्रकाशित हुई थी, श्री नेमिचंद्र जैन ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया। मैं तब एक बहुत छोटे कस्बे ‘मुँगावली’ में रहता था। साहित्य की दुनिया में मेरा कोई विशेष परिचय नहीं था। और इस एक पुरस्कार ने मेरे लिए काफी कुछ बदल दिया।
 कविता को चुनने के पीछे कोई विशेष कारण , प्रभाव ? एक कवि के तौर पर आपके प्रेरणा स्त्रोत कौन कौन से रचनाकार रहे जिन्हें आपने अपने शुरुआती दिनो में  पढ़ा और उनसे बेहद प्रभावित हुये ?
 शायद मैं कविता ही लिख सकता था। एक संवेदना, एक विचार और एक दृश्य मुझ पर जैसे झपट्टा मारता था। उस आवेग का प्रतिफलन कविता में होता था।रामचरितमानस की अनेक भावप्रवण और उपमाओं, रूपकों से भरी पंक्तियों का प्रारंभ में मेरे ऊपर काफी प्रभाव रहा है। 
 प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ते हुए वामपंथ और मार्क्‍सवाद से गहरा परिचय हुआ। पच्चीस से अधिक रचना शिविरों में शिरकत की और खूब बहस हुई। इससे विचार, समझ और दृष्टि में व्यापकता आई। अपनी कमजोरियों और कमतरियों का अनुमान भी हुआ। फिर धीरे धीरे निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, नेरूदा, व्हिटमैन, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विनोद कुमार शुक्ल, केदारनाथ सिंह, धूमिल, की कविताओं से गुजरते हुए कविता के वैविध्य और नयी ताकत का अहसास हुआ। चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, ज्ञानेंद्रपति, भगवत रावत, अशोक वाजपेयी और मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, अरुण कमल, राजेश जोशी, असद जैदी, विष्णु नागर के संग्रह  गुना की जिला शासकीय लायब्रेरी से पढ़े। दुष्यंत कुमार के संग्रह भी। इन जिला शासकीय पुस्तकालयों की स्थापना में अशोक वाजपेयी की प्रखर भूमिका थी। 
इनसे कविता के पक्ष में धारणा और प्रेम कुछ और दृढ़ हुआ होगा, ऐसा मुझे अब लगता है। किंचित असहमति भी पैदा हुई और लगा कि इन सबसे पृथक कुछ मेरे अनुभव में है जिसे मैं कविता में रूपायित कर सकता हूँ। असहमतियाँ भी प्रेरक होती हैं। लेकिन बाद में मुक्तिबोध की कविताओं के साथ उनकी डायरी ने काफी प्रभावित किया। इधर मेरे तमाम दूसरे समकालीन विमल कुमार, देवीप्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्‍तव, बद्रीनारायण, कात्‍यायनी, सविता सिंह, अनीता वर्मा, आशुतोष दुबे, बोधिसत्‍व, हरिओम राजौरिया, नीलेश रघुवंशी सहित इधर आये अनेक कवियों की कविताएं दिलचस्‍पी और चुनौती का कारण बनती हैं।
एक रचनाकार पर अपने आसपास की हर चीज का, हर शब्द का और हर ध्वनि का प्रभाव पड़ता है। वह ऋणग्रस्‍त ही है। वह दस हजार तत्वों से मिलकर बनता है। रोज बनता रहता है। उसे किसी एक दो प्रभावों में न्यून नहीं किया जा सकता। सबसे ज्यादा प्रभाव तो अपने बचपन का, स्मृतियों का, अपनी असहायताओं, जिज्ञासाओं और असमर्थताओं का होता है। जैसे एक कवि कविता लिखते हुए इन सब पर विजय पाना चाहता है या इन्हीं में घुलकर कोई नया पदार्थ बन जाना चाहता है। मुझे लगता है कि एक कहानीकार, उपन्यासकार या आलोचक की तुलना में कवि इस संसार में कहीं अधिक मिस फिट और अवसादग्रस्त व्यक्ति होता है। अधिक संवेदित, स्पर्शग्राही, और कहीं अधिक भावुक और विश्वासी। एक कवि बार-बार धोखे खा सकता है, एक कवि को किसी अन्य रचनाकार की तुलना में कहीं अधिक आसानी से ठगा जा सकता है। यह उसकी कोई प्रशंसा, निंदा या प्रशस्ति नहीं है, बस एक स्वभाव और बनावट पर ध्यानाकर्षण है। हालाँकि सजग, चतुर और चालाक कवियों की भी उपस्थिति हो सकती है लेकिन मैं उन्हें आपवादिक मानता हूँ।
 किवाड़ , क्रूरता , अतिक्रमण और अनिंतम , आपके प्रमुख कविता संग्रह रहे हैं । लेकिन एक प्रश्न जो सबसे पहले 
मन में आता हैं की इन शीर्षकों को चुनने के पीछे आपका कोई विशेष विचार ?
 पहले संग्रह का नाम तो पुरस्कृत, स्वीकृत और चर्चित कविता के नाम पर सहज ही हो गया। लेकिन ‘क्रूरता’, ‘अनंतिम’, ‘अतिक्रमण’ और अभी ‘अमीरी रेखा’ः इन संग्रहों के नाम समय विशेष के दौरान लिखी गई कविताओं के कुल चरित्र, प्रतिवाद और आकांक्षा को केंद्र में रखकर ही चुने हैं। एक तरह से वे अपने उस कालखण्ड पर टिप्पणी, विमर्श, प्रतिरोध, पराभव और प्रस्ताव को लक्षित करते हैं। इनमें समकालीन प्रवृत्त्यिों की पहचान की कोशिश है और हाशिए पर छूट गई कुछ चीजों को बीच बहस में शामिल करने की मंशा भी। संभव है कि इनका यही अर्थ और भावना पाठकों तक भी पहुँची हो।
 आपकी अतिक्रमण (2002) कविता संग्रह के बाद आपका एक गद्य इच्छाए (2008द) प्रकाशित हुआ। क्या इस बीच के समय कोआपने विशेष रूप से गद्य (कहानियो) को दिया ? आप गद्य हमेशा से लिखते थे लेकिन आपने अचानक से इन्हें प्रकाशित करने का निर्णय कैसे लिया ?  क्या लिखते समय आप प्रकाशन या किसी  निश्चित समय में इसे पूरा करने के बारे में सोचते हैं?
 मैं विनम्रता लेकिन दृढता से कहना चाहता हूँ कि कहानियाँ मैंने इसलिए लिखीं कि मैं पिछले दस-पंद्रह साल की अधिसंख्‍य हिंदी कहानियों के गद्य से बेहद निराश था। उनकी कृत्रिमता, नाटकीयता, इतिवृत्तामत्कता, अलौकिकता, इतिहास की कोई घटना या दुर्लभ बीमारियों के संदर्भ से बनाया गया कथासार, उनकी स्थूलता, विद्रूपता, शिल्प की अतिरिक्त सजगता, महीनता, काम चित्रावली और बौद्धिकता से मैं, अपनी तरह का एक पाठक, थक गया था। वे बहुत से शब्दों से बनी हुई विशाल, बड़बोली कहानियाँ थीं जिन्हें लिखनेवाला किसी उच्चतर जगह पर बैठा सृष्टा था। मुझसे वे पढ़ी भी नहीं जाती थीं। उनमें सब कुछ था बस सहजता, संबंध, जीवन का उत्स, सच्ची निराशा, अपराधबोध, मार्मिकता और अवसाद गायब था। वे महान कहानियाँ थीं और उनमें साधारण चीजें, रोजमर्रा का जीवन और आपाधापी अनुपस्थित थी। उनमें गद्य का एक अच्छा, स्वाभाविक पैराग्राफ खोजने पर भी नहीं मिलता था। यद्यपि ढर्रे में लिखा गया विपुल गद्य। प्रसंगों और घटनाओं के लिए आविष्कृत बरसों पुराना बासी गद्य। एक अच्छा वाक्य खोजने के लिए, कथा में जीवन, उत्साह, आलोचना, अस्वीकार और स्क्रीनिंग के लिए मुझे एक चैथाई सदी पीछे, ज्ञानरंजन के पास जाना पड़ता था। मैं महज अपना एक प्रतिवाद रखना चाहता था। एक शिकायत और एक इच्छा। मैं आलोचक की तरह यह काम करने में समर्थ नहीं था इसलिए मेरे पास इसका कोई सर्जनात्मक उपाय ही मुमकिन था। मैं नहीं कह सकता कि क्या कुछ मैं कर पाया लेकिन उसे एक रचनात्मक आकांक्षा और असहमति की तरह भी देखा जा सकता है। संभवतः इसलिए ही उनमें विषयों और विधागत अतिक्रमण का वैविध्य भी संभव हो सका। किस्सागोई के शाश्वत तरीके भी खास तरह की ऊब पैदा करते हैं।
 जानना दिलचस्प लग सकता है कि एक कहानी तो ‘पहल’ के लिए ज्ञानरंजन जी ने आग्रहपूर्वक लिखवा ली क्योंकि किसी अंक में वे कवियों का गद्य छापना चाहते थे। बाकी कहानियाँ फिर लिखी होती गईं लेकिन उन्हें कहीं प्रकाशन के लिए भी दो बरस तक नहीं भेजा। किसी प्रसंग में रवीन्द्र कालिया जी को तीन कहानियाँ भेजी गईं और उन्होंने तीनों कहानियों को ‘वागर्थ’ के लगातार अंकों में और फिर ‘ज्ञानोदय’ में चार-पाँच कहानियों को प्रकाशित किया। इस तरह वे संग्रहाकार लायक हो गईं।
 अपनी नयी कविता संग्रह  अमीरी रेखा के बारे में  कुछ बताइये । इसके शीर्षक के पीछे भी गहरी सामाजिक 
समस्या का अनुभव होता हैं । इस कविता संग्रह में आपकी किस तरह की कविताओ का संग्रह हैं? आज के समय आर्थिक विषमता,  भ्रष्टाचार , कमजोर होता लोक तंत्र और हमारे सामाजिक जीवन में संस्कृति व सभ्यता का पतन कुछ बुनियादी  मुद्दे हैं तो क्या ये कविता संग्रह इन  सब को सामने लाने की कोशिश हैं क्योंकि ये संग्रह आपका उस समय आया हैं जब वाकई हर जगह इन समस्याओ पर क्रोध हैं ।
जैसा कि मैंने ऊपर इंगित किया कि किसी कालखंड में लिखी कविताएँ अपने समय और समाज से प्रतिकृत होती ही हैं। अमीरी की रेखा कोई हो नहीं सकती और उसकी पड़ताल करना मुश्किल है। वह प्रवृत्तियों में, अमानुषिकता और पूँजीवादी विचार में कहीं खोजी जा सकती है। और ऐसे तमाम प्रत्यय हैं, विडंबनाएँ और विषमताएँ हैं जो इधर समाज में बढ़ती जा रही हैं लेकिन उन पर विमर्श गायब है। बहस के, विचार के गलियारों से भी वे बहिष्कृत हैं। मुझे अपनी प्रतिबद्धताओं के चलते ये सब चीजें कहीं अधिक विचारणीय लगती हैं, संवेदित करती हैं, परिचालित करती हैं। याद रखने की बात है कि सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिकता, समानता और समाजवाद की चाह अभी अप्रासंगिक नहीं हुई है। इन सबको एक ग्लोबल ओट में रखा जा रहा है।

2 टिप्‍पणियां:

Ashok Pande ने कहा…

अच्छा ईमानदार साक्षात्कार! जल्द ही इसे पूरा का पूरा अपने कबाड़ में लगाने की इजाज़त देंगे भाईसाब?

Atul CHATURVEDI ने कहा…

बहुत बढ़िया और ईमानदार अभिव्यक्ति बधाई अम्बुज जी को