मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

मुश्किल तो मेरी है

करीब 10 साल पहले लिखी इस कविता का एक उददेश्‍य चुनावी माहौल में सा्ंप्रदायिक मानसिकता के प्रति रेखांकन और 
आगाह का भी था। अब फिर चुनाव हैं और वही इरादे। इसलिए पुन:स्‍मरण।
 
सड़कों पर, चौबारों में,
टी.वी. पर, ट्रेनों में, अखबारों में,
हर तरफ हिंदू ही हिंदू हैं

जब भी उनकी सत्‍ता पर खतरा आता है
उन्हें तत्काल लोगों का हिंदू होना याद आता है

उनको क्या मुश्किल, मुश्किल तो मेरी है
मैं जो रिक्शा चलाता हूँ
मैं  जो बीड़ी बनाता हूँ
मैं  जो गन्ना उगाता हूँ
मैं  जो ट्रैफिक में फँस जाता हूँ
मैं  जो उधारी में पड़ जाता हूँ
मैं  जो शहनाई बजाता हूँ
मैं  जो भूख से बिलबिलाता हूँ

उनका क्या, मुश्किल तो मेरी है
मैं  जो बच्चों की फीस नहीं चुका पाता हूँ
मैं  जो कचहरी के चक्कर लगाता हूँ
मैं  जो हाट-बाजार में घिर जाता हूँ
मैं  जो ठंडे फर्श पर सो जाता हूँ
मैं  जो निरगुनियाँ गाता हूँ
पड़ोसी से एक कटोरी शकर लाता हूँ
और आसपास के सुख-दुख में शामिल होते हुए
आखिर अपना हिन्दू-मुस्लिम होना भूल जाता हूँ।
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1 टिप्पणी:

Ankur Jain ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति....