शनिवार, 13 सितंबर 2014

मुक्तिबोध: उनके वाक्य, ताला भी कुंजी भी


बी बी सी हिंदी से, मुक्तिबोध के निधन की अाधी शताब्‍दी पूरी होने के संदर्भ में, एक संक्षिप्‍त बातचीत। 
इस बातचीत का लिंक यहॉं नीचे है।
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/09/140912_muktibodh_kumar_ambuj_rns.shtml

कुमार अम्बुज
मुक्तिबोध के निधन के बाद के पाँच दशक गवाह हैं कि उनके जाने के बाद उनकी प्रासंगकिता और ज़्यादा बढ़ी है. इन पाँच दशकों में शायद हिन्दी के प्रत्येक कवि ने मुक्तिबोध को हमेशा ही अपनी स्मृति में रखा है.
मुक्तिबोध का पूरा रचनाकर्म, जो सृजनधर्मिता थी वह हिन्दी के लिए गौरव की बात है. यह बहुत महत्वपूर्ण अवसर है कि हम मुक्तिबोध की कुछ बातों को अपने-अपने तरीक़े से याद करें.
कवि और कथाकार के रूप में तो मुक्तिबोध की ख्याति है ही लेकिन उनका पत्रकार रूप भी लोगों को याद रहना चाहिए. उनके दो काम और भी विलक्षण थे जिन्हें मैं उनके कवि कर्म से कम महत्वपूर्ण नहीं मानता हूँ.
एक, उन्होंने जो डायरी लिखी है उसमें रचना प्रक्रियाओं को लेकर एक लेखक के मन की उधेड़बुन, व्यग्रता और मुश्किलें शामिल हैं. वह 'एक साहित्यिक की डायरी' नाम से प्रकाशित हुई और उनकी रचनावली में यह सम्पूर्ण रूप में है.
दूसरा, उन्होंने 'इतिहास और संस्कृति' के नाम से भारत का इतिहास लिखा. जो बहुत विवादास्पद भी रहा, जिसको लेकर मुक़दमेबाज़ी हुई, लेकिन वह वैज्ञानिक ढंग से लिखा गया इतिहास है.
उनकी डायरी की कई पंक्तियाँ इतनी सारगर्भित हैं कि लगभग एक वाक्य से ही हम बहुत सारे निष्कर्षों की तरफ़, बहुत सारी अवधारणाओं की तरफ़ जा सकते हैं. वह अपने आप में ताला भी हैं और कुंजी भी हैं.
उनकी रचनावली के पाँचवें खंड में जो डायरी है उसमें एक हिस्से की शुरुआत इस वाक्य से होती है, "साहित्य विवेक मूलतः जीवन-विवेक है." यह वाक्य मुझे बहुत अनुप्राणित करता रहा है. इस वाक्य को अगर हम खोलने की कोशिश करें तो हम पाएँगे कि यह एक पूरा विमर्श है.
जनता का साहित्य क्या है?
इसी तरह उन्होंने बहुत दिलचस्प शीर्षक से डायरी लिखी है कि जनता का साहित्य किसे कहते हैं. यह सवाल बार-बार उठता है कि साहित्य बहुत लोकप्रिय नहीं होता है, जो अच्छा साहित्य है उसे बहुत पढ़ने वाले नहीं मिलते हैं और उसे हम जनता का साहित्य कैसे कहें जिसे जनता पढ़ ही नहीं सकती.
मुक्तिबोध लिखते हैं, "साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक. किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है. दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं. ऐसा होता तो क़िस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते."
वह आगे कहते हैं, "तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है. इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिष्‍ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो. इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है."
कला के क्षण
इसी तरह डायरी के वे हिस्से बहुत महत्वपूर्ण हैं जिसमें उन्होंने कला के दूसरे और तीसरे क्षण के बारे में लिखा है. किसी लेखक और रचना के लिए होने वाले संघर्ष-आत्मसंघर्ष, उसकी प्रक्रिया के बारे में उन्होंने बहुत संवेदनशीलता और बहुत ज़िम्मेदारी से लिखा है.
मुक्तिबोध की 'अंधेरे में', 'भूल-ग़लती' जैसी कई कविताएं बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन मैं यहाँ उनकी ऐसी कविता का स्मरण करना चाहता हूँ जो शायद उतनी उद्धृत नहीं है. यह कविता है 'भूरी भूरी ख़ाक धूल' संग्रह में शामिल कविता 'झरने पुराने पड़ गए'. यह उनकी लगभग अधूरी रचना है. यह कविता उनकी मृत्यु से क़रीब चार-पाँच साल पहले 1959-60 में लिखी गई थी.
दुनिया बदलने का एक सपना
उनकी कविता में तद्भव और तत्सम शब्दों का विशाल सपुंजन और समावेश है, लेकिन 1955 के बाद उन्होंने जो कविताएं लिखी हैं उनमें आम बोलचाल की भाषा लगातार बढ़ती गई है.
वैज्ञानिक शब्दावली, आविष्कारों और खोजों के प्रति उनकी उत्सुकता, श्रद्धा और जीवन को ये आविष्कार बदलेंगे इसका विश्वास, साथ में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उनके कुल लेखन में कभी भी अनुपलब्ध नहीं रहे.
मुक्तिबोध इसलिए हमारे लिए आजतक महत्वपूर्ण बने हुए हैं क्योंकि वह जनता से जुड़कर, जीवन से जुड़कर इस दुनिया को बदलने के लिए एक सपना हमेशा देखते रहे.
संदर्भित कविता 'झरने पुराने पड़ गए' का अंश
झरने पुराने पड़ गए
उनकी उपमा अब कोई नहीं देता
शायद धोबी दें,
जो वहाँ कपड़े फचीटते हैं,
या किसान
जो उसमें फंसी हुई गाड़ी घसीटते हैं लेकिन
वो सभ्य नहीं हैं
इसलिए झरने की उपमा अब लभ्य नहीं है
फिर भी मैं झरने की उपमा ज़रूर दूँगा
उस सुदूर को
जो बहता हुआ हमारी ओर आ रहा है
हमारे पास लगातार आ रहा है
इसलिए नहीं कि हम नदी या तालाब हैं,
जिसमें मिल जाएगा
बल्कि इसलिए कि हम वे टीले हैं
जिन्हें घाव-ही-घाव हैं
टूटे हैं तड़के हैं
फिर भी ठहराव है
एक रुकाव है, इसीलिए सब तरफ़ चेहरे ये पीले हैं
वह आ रहा है, अनक़रीब है,
हमें बहा ले जाएगा!!
कहाँ ले जाएगा?
तो उसी का क़िस्सा है
पुराने जमाने में
भयानक परिपाटी-सी
एक घाटी थी
उसकी वह माटी भी अजीब थी,
बहुत ग़रीब, बहुत बदनसीब थी
वहाँ कई लड़ाइयाँ हुई थीं,
खूब ठठरियाँ फैली थीं,
टूटी हुई हड्डियों के टुकड़े
अभी भी देखे जा सकते हैं
निरखे जा सकते हैं, परखे जा सकते हैं.
लेकिन कौन इस धंधे में पड़े
तो हाँ, वहाँ हजारों किसान मारे गए थे,
बड़े युद्धवीर थे
इसीलिए तलवार के घाट उतारे गए थे
और भी दूसरे कई-कई लोग थे,
बड़े लड़ाकू थे, मरण-संयोग थे
उन्होंने गढ़ और गढ़ियाँ,
दुर्ग और क़िले ढहा दिए
बड़े-बड़े अहंकार और गर्व बहा दिए
आज उसी एक क़िले के हिस्से में
मेरा यह कॉलेज है
टेबल और मेज है,
आर्ट्स और साइंस, कॉमर्स हैं
मुझे यह हर्ष है
कि उसी क़िले के एक महत् सिंहद्वार के
ऊपर और नीचे के कक्षों में मुझको बसाया गया,
क्वार्टर्स बन गए.
 (रंगनाथ सिंह, बी बी सी हिंदी, से बातचीत पर आधारित)

4 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/09/blog-post_16.html

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

बहुत सुंदर ।

कविता रावत ने कहा…

मुक्तिबोध जी की बारे में बहुत सार्थक जानकारी के साथ चिंतनशील कविता प्रस्तुतीकरण के लिए आभार!

Unknown ने कहा…

सुबह-सुबह "एक साहित्यिक की डायरी" के पसंदीदा अंश पढ कर ताजगी आ गयी /