'श्रम के घंटे और मनुष्य का अवकाश' लेख की यह तीसरी और अंतिम किश्त।
यह कुछ बड़ा अंश है। लेकिन आशा है कि इसे धीरजपूर्वक पढ़ लिया जायेगा।
जीवन-स्तर और जीवन की गुणवत्ता
जो लोग तर्क देते हैं कि यदि वे अपना कार्यालयीन काम छोड़कर जाएँगें तो अगले दिन वही काम करना तो उन्हें ही पड़ेगा। उनके तर्क में ही असली समाधान छिपा हुआ है - कि `वह काम `अगले दिन´ करना होगा, उसी दिन नहीं।´ पूरी समस्या तो एक दिन में कार्यावधि से अधिक काम करने से संबंध रखती है। जो एक दिन में पूरा नहीं हो रहा है वह उस दिन का काम नहीं है, अगले दिन का काम है। और जो काम एक महीने में पूरा नहीं हो रहा है, दरअसल वह काम एक से अधिक आदमियों का काम है। अब तो ट्रेड यूनियनें यह बात सगर्व कहने लगी हैं कि देखिए, हमारे कर्मचारियों ने समय से भी अधिक बैठकर काम किया है और संस्थान के लिए इतना अधिक लाभ अर्जित किया है जबकि उन्हें इस बात पर किंचित लज्जित और चिंतित होना चाहिए और ऐसा न हो, इसके हर संभव उपाय करना चाहिए।
प्रतिष्ठित संस्थानों में आर्थिक अथवा अन्य सुविधाओं का प्रलोभन देकर, अधिक समय तक काम लेने की प्रवृत्ति ने अधिकारी-कर्मचारियों को भी खास तरह के नशे का शिकार बना दिया है। उनमें से तो अनेक न केवल इसे उचित मानते हैं बल्कि उन्हें लगता है कि इससे उन्हें कुछ धनलाभ हो रहा है, वह बरकरार रहना चाहिए। यह अतिरिक्त आय का नशा है जिसमें वे भूल जाते हैं कि इस तरह वे रोज-रोज `कम मनुष्य´ (less human) हो रहे हैं और उन सब नकारात्मकताओं और मुश्किलों की जकड़न में आ रहे हैं जिनका कुछ विवरण ऊपर दिया गया है। इन नशेलचियों में वे लोग भी शामिल हैं जो कैरियरिस्ट हैं। वे इस बात की सुखद कल्पना करने की ताकत ही खो बैठे हैं कि किस तरह उनके जीवन से `अतिरिक्त प्राप्य एक हजार रुपया महीना कम हो जाए लेकिन समय पर कार्यालय से वापसी हो जाए´ तो मनुष्य के रूप में उन्हें कितनी शांति, प्रफुल्लता, स्वास्थ्य और आंनद मिल सकता है। (जिसे पाने के लिए बाद में उन्हें औसतन दो हजार रूपए महीने खर्च करने ही पड़ते हैं।) मनुष्य की इच्छा, सुखद कल्पनाशीलता और आकांक्षा को खो देना ही श्रमिकों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप हो सकता है जिसे आज का संगठित श्रमिक भी भुगत रहा है लेकिन यही बात संस्थानों के लिए वरदान हो जाती है इसलिए वे कुछ दे-दिलाकर श्रमिक से अतिरिक्त घंटे काम करा लेने को सहज-स्वीकार्य बनाते जा रहे हैं। यह श्रमिकों का वस्तुरूप में खरीदे जाने का ही एक प्रकार है। यह एक नया विनिमय मूल्य है। (याद करें दासप्रथा।) वे चाहते हैं कि इस स्थिति का कोई प्रतिरोध न हो। बल्कि वे यह तक कहने से पीछे नहीं हटते कि ऐसा करके हम श्रमिक के जीवन स्तर को बढ़ा रहे हैं। कहना चाहिए कि हाँ, आप ऐसा करके श्रमिक के जीवन-स्तर को कुछ हद तक आर्थिक तौर पर बढ़ा रहे हैं लेकिन उसके `जीवन की गुणवत्ता और आयु´ को काफी हद तक कम कर रहे हैं। यह बात पर्दे के पीछे रह जाती है कि वस्तुत: उनका लक्ष्य सिर्फ अपने संस्थान का लाभ बढ़ाना है। श्रमिक के जीवन-स्तर या उसकी समस्याओं से तो उनका तनिक भी सरोकार नहीं है। जिन सुविधाओं या वेतन की बात वे (संस्थान) करते हैं, वह तो श्रमिकों द्वारा घोर संघर्ष के बाद प्राप्त किया गया हैं।
यह उनका दिया हुआ नहीं, उनसे लिया हुआ है। इसमें उन्हें गर्व करने का हक ही नहीं है। संतोष की बात यह होना चाहिए कि अभी भी श्रमिकों में कुछ लोग ऐसे हैं जो अपना समय बेचकर किंचित सुविधा या पैसे को लात मारना चाहते हैं और अपने अवकाश के प्रति लालायित हैं। ये वे लोग हैं जो मनुष्य के रूप में अपनी भूमिका, रचनात्मकता, सामाजिकता और विविधता को तरजीह देते हैं। वे इसी तरह मनुष्य की आंशिक मुक्ति का ही स्वप्न देखते हैं। ट्रेड यूनियन के लिए भी यह स्वप्न, यह प्रयास और यह अभिलाषा शक्ति और दिशा देने वाला होनी चाहिए इसलिए संस्थान में उपस्थित `सुविधा और धन की चाह´ के नशे के आदी हो रहे कर्मचारी-अधिकारियों को नासमझ नशेलची मानकर उन्हें इससे मुक्ति दिलाना चाहिए, सही शिक्षा देना चाहिए। क्योंकि उन्हें नासमझों द्वारा निर्मित तर्क और हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता अन्यथा वे तो इस विषम परिस्थिति का शिकार होंगे हीं, अन्य श्रमिकों के लिए भी प्रदूषण और दुष्प्रेरणा के नए स्त्रोत भी बनेंगे।
यह व्यवस्था तुम्हें मार नहीं डालना चाहती
अब्राहम लिंकन जब अपने पुत्र के शिक्षक को पत्र लिखते हैं कि `मेरे बेटे को तारों को, किताबों को, आकाश में विचरण करते पक्षियों को भी देख सकने का समय और सामर्थ्य मिलना चाहिए´ तो इसके बड़े़ आशय हैं। यदि हम इसमें चाँदनी रात, नौका-विहार, सूर्योदय-सूर्यास्त, नयी जगहों को देखने का सौन्दर्य, प्रिय को निहारने और झरने की कल-कल सुनने जैसी अनेक चीजें जरूरतों की तरह शामिल कर लें तो इसकी व्यापकता और बढ़ जाएगी। लिंकन जैसे अनेक विचारक मनुष्य के विकास और मुक्ति को विशाल अर्थों में देखते रहे हैं। इस विचार परंपरा को आगे बढ़ाना ही वांछनीय है। ध्यान रखना चाहिए कि `तनाव और आनंद´ का संबंध विलोम अनुपाती है। आप तनाव में रहते हुए, किसी भी उपलब्ध सुविधा का आनंद नहीं ले सकते। यही कारण है कि आज सांस्थानिक कर्मचारियों- अधिकारियों के घर में औसत सुख-सुविधा के साधन होते हुए भी वे आनंदित नहीं हैं और ऊपर से हँसते-मुसकराते हुए शोकमय जीवन बिता रहे हैं। सुविधाओं का आनंद ले पाने का सामथ्र्य उनमें बचा ही नहीं है। ये सुविधाएँ कई बार इसलिए भी दी जाती हैं कि वह भौतिक तौर पर अपने को उच्चतर या बेहतर अवस्था में अनुभव करे और किसी तरह का प्रतिरोध न कर सके। रघुवीर सहाय अपनी कविता में कहते हैं कि यह व्यवस्था आपको मार नहीं डालना चाहती। अर्थात् वह इतना जरूर आपको देती रहेगी कि आप जीवित रह सकें क्योंकि उसे आपसे काम लेना है। आपको मारकर तो वह खुद जीवित नहीं रह सकती। इसका नया विस्तार यह है कि वह आपको कुछ सुविधाएँ भी देगी (यद्यपि संघर्ष के बाद विवश होकर) क्योंकि वह आपके भीतर उपजने वाले संभव असंतोष को कुछ हद तक खतम करना चाहेगी ताकि उसे चुनौतियाँ और कर्मचारी का असंतोष न सहना पड़े। उसका अस्तित्व और लाभ बना रहे।
मध्यवर्ग मूलत: सर्वहारा ही है
हम देख सकते हैं कॉल सेन्टर्स में, निजीकृत तकनीकी और कंप्यूटर संबंधी इकाइयों में दस से बारह घंटों का काम लिया जा रहा है। इसके लिए कोई कानूनी क्रियान्वयन, श्रमिक आंदोलन या प्रभावी उपाय नहीं है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि देश के विशाल मध्यवर्ग के बीच यह भ्रम फैला देने में कामयाबी मिल गई है कि वे लोग श्रमिक नहीं हैं। वे तो `सेवा क्षेत्र´ में हैं और `बौद्धिक´ हैं या `आधुनिक तकनीक के जानकार´। जब यह दुष्प्रचार सफल हो गया हो कि एक समझदार, पढ़ा-लिखा, युवतर और विशाल वर्ग अपने आपको `श्रमिक´ न माने तो यह होना ही है कि वे पूँजीवाद और पूँजीपतियों के सिर्फ शिकार होते चले जाएँ। बाबुओं या बाबूनुमा अधिकारियों की सफेदपोश उपस्थिति को वे बढ़ावा देना ही चाहते हैं क्योंकि इससे एक ऐसा वर्ग बनता है जो `अपने को सर्वहारा वर्ग से अलग कर सकता है´ और किसी भी तरह के क्रांतिकारी आंदोलन का सच्चा सहायक नहीं हो सकता। जबकि व्यवहारिक और पारिभाषिक तौर पर वह सर्वहारा ही है : `वह वर्ग जिसका पूँजी पर कोई मालिकाना हक नहीं है और जो रोज-रोज अपना श्रम बेचने के लिए बाध्य है।´ नयी पीढ़ी को वैश्वीकरण ने एक ऐसे जाल में फँसा लिया है कि वे संघर्षपूर्ण दृष्टि से विचार करने लायक स्थिति में ही नहीं छोड़ दिए गए हैं। ऐसे युवाओं की जीवनचर्या पर भी यहाँ निगाह डालना उचित होगा। वे युवावस्था के जोश, उन्माद और क्षमता में जो काम कर रहे हैं उससे उनके पास समयाभाव है। थकान से भरे हुए वे प्राय: काम के बाद शराब, क्लबों और सतही मनोरंजन के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। वे आरंभिक दिनों में खिले हुए फूल की तरह काम पर जाते हैं और जल्दी ही मुरझाए फूल की तरह काम से वापस आने लगते हैं। फिर वह दिन आता है कि वे एक बासी फूल, जिसकी पंखुरियाँ लटक रही होती हैं और जिसका पराग झर चुका होता है, की तरह काम पर जाते दिखते हैं और निढाल, कमजोर, चिड़चिड़े और चुके हुए कातर या मिनमिनाते आदमी की तरह वापस आते हैं। उनकी तुलना सिर्फ उस गन्ने के टुकड़े से हो सकती है जो रस निकालने के लिए जब मशीन में डाला जाता है तो स्वस्थ, सुडौल और रस से भरा होता है लेकिन दूसरी तरफ से निकलते हुए उसका रेशा-रेशा बिखर जाता है, रसहीन हो चुका होता है और महज छूँछन बचती है। श्रम की मशीन में अत्याधिक दबाव में काम करते हुए मनुष्य की यह हालत होने में दस-बीस साल लग सकते हैं लेकिन आर्थिक उदारवादी व्यवस्था ने जिस तरह का दिलकश उत्पीड़न श्रमिकों के लिए, खासतौर पर बौद्धिक श्रमिकों के लिए प्रस्तुत किया है वह मनुष्य को छूँछन बनाने में अधिक समय नहीं लेता, बमुश्किल तीन से पाँच बरस पर्याप्त सिद्ध होते हैं। छूँछन का यह असर जितना शरीर पर पड़ता है, आत्मा पर उससे कम नहीं।
आप-हममें से कौन ऐसा पालक होगा जो यह स्वप्न देखे कि `हमारे बच्चे को रुपए तो पचास हजार महीने मिलें फिर चाहे वह साढ़े नौ बजे काम के लिए निकले, वहाँ जुटा रहे, थक-हारकर रात आठ बजे तक घर लौटे, किसी पब में घुस जाए, कब्ज की गोलियाँ खाता रहे, टेलीविजन निहारता हुआ बिना कपड़े बदले ही सो जाए और फिर सुबह आठ बजे उठकर आपाधापी में तैयार होते हुए इसी दिनचर्या को दोहराता चला जाए। उसके साप्ताहिक अवकाश को भी संस्थान हजार-पाँच सौ रुपए में खरीद ले, एकाध अवकाश उसे हासिल हो तो उसमें खूब खाए-पीए और सोए ताकि अगले दिन से फिर कामकाजी दिनचर्या की भट्टी में प्रवेश कर सके। इस तरह धीरे-धीरे सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर वह निरंक होता चला जाए और जब उसका विवाह हो तो वह अपनी कामकाजी या घरेलू पत्नी को भी अपनी आपाधापी और अपने कोलाहल का हिस्सेदार बना ले।´ निश्चय ही कोई भी विचारशील व्यक्ति अपने बच्चों के लिए ऐसी कल्पना नहीं कर सकता। कितनी मजेदार बात है कि वह खुद ऐसी स्थितियों का शिकार होता चला जा रहा है लेकिन उसका प्रतिरोध गायब है। इस प्रतिरोध को जगाना, श्रमिक के, मनुष्य के मूल कत्र्तव्य के रूप में आज सबसे जरूरी है। जितना जटिल जीवन यह होता जा रहा है उसमें सप्ताहांत में दो दिन का अवकाश हो, अब बात यहाँ से प्रारंभ होनी चाहिए। पाँच दिन के काम के बाद, लगातार दो दिन का अवकाश ही एक श्रमिक को मनुष्य का वह अवकाश दे सकता है जिससे वह अधिक तनावमुक्त, आनंदित और अधिक नागरिक हो सके। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अपने कामकाजी दिनों में वह सुनिश्चित कार्यावधि से अधिक श्रम करे। यह सुनिश्चत किए जाने में कोई आपत्ति नहीं है कि श्रमिक अपने कामकाजी घंटों में पूरी क्षमता, योग्यता और जबावदारी से कार्य कर सके। प्रबंधन का मूल दायित्व भी यही है कि इस तरह से कार्य-संस्कृति और कार्य ले सकने का वह सुप्रबंध करे। इस संबंध में संस्थान अपने कुप्रबंध या प्रबंधन अक्षमता को कर्मचारियों के ऊपर ढकेल कर, उनसे अतिरिक्त श्रम कराए, यह स्थिति एकदम अस्वीकार्य होनी चाहिए।
संस्थागत काला जादू
जब संस्थान कहता है कि यह संस्था आपका परिवार है, अपनी क्षमता से अधिक काम करना और मर-मिट जाने की भावना या हार्दिकता से काम करना आपका धर्म है तो इससे अधिक चालाकी कुछ नहीं हो सकती। संस्था में काम कर रहे लोगों से तो पारिवारिकता हो सकती है लेकिन यह निर्दयी तथ्य है कि श्रमिक की किसी संवेदनशील या भावुक स्थिति में, संस्थान उसके साथ मित्र की तरह पेश नहीं आ सकता और न ही श्रमिक किसी भावना या भावुकता के तहत किसी संस्था में काम करना स्वीकार करते हैं। पिंच्यानबे प्रतिशत लोगों को नौकरियाँ उनकी रुचि के आधार पर नहीं मिलती हैं। वहाँ उनकी भर्ती नियमों, सेवाशर्तों, संस्थानों के लिए आवश्यक योग्यताओं और आर्थिक भुगतान के आधार पर होती है एवं वे अपनी ठोस, भौतिक जरूरतों के तहत वहाँ काम करते हैं ताकि वे एक मनुष्य के रूप में जीवित, सक्रिय और सकुशल रह सकें। लेकिन हम देख रहे हैं कि यह नारा उन्हें जीवित रखने में तो मददगार है लेकिन `सक्रिय और सकुशल´ नहीं रख पा रहा है। `सक्रिय और सकुशल´ केवल संस्था और उसके मालिक रह गए हैं। या अधिक से अधिक उसके उच्च प्रबंधकगण। जाहिर है कि ये सब नारे एक श्रमिक को भावनात्मक स्तर पर ब्लेक-मेल करने के साधन हैं ताकि उसका अधिकाधिक समय और श्रम चुराया जा सके। संस्थान द्वारा सामूहिक स्तर पर यह ब्लेक-मेलिंग सम्मोहन का असर पैदा कर सकती है इसलिए इन प्रयासों को `संस्थागत काला जादू´ कहना उचित होगा। इसका असर इस हद तक हो जाता है कि एक दिन श्रमिक को समय से अधिक काम करना नैतिक प्रतीत होने लग सकता है। जबकि यह कितना हास्यास्पद और विरोधाभासी है कि तनख्वाह दी जाएगी सात घंटे रोज की और यदि आप `केवल सात घंटे´ काम करेंगे तो आपकी निष्ठा और कार्यकारी चरित्र को ही संदिग्ध मान लिया जाएगा। ऐसा वातावरण बनने लगा है इसलिए भी अब इसका सार्थक प्रतिरोध आवश्यक है। ट्रेड यूनियन की दृष्टि से अब उन कर्मचारी-अधिकारियों को शत्रु मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए जो निर्धारित कार्यघंटों से अधिक काम करते हैं। निश्चय ही ये वे लोग हैं जो अपने कैरियरिज्म, भीरूता, प्रतिरोधहीनता और तुच्छ व्यक्तिगत लाभप्रदता के चलते संस्थान के मालिकों और प्रबंधकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर देते हैं कि वे तयशुदा कार्य-समय से अधिक कार्य करने के लिए शेष श्रमिकों पर दबाव बना सकें। कर्मचारियों की मौजूदा संख्या से अधिकाधिक कार्य करा लेने के नवीनतम हथकंडे इस्तेमाल करने के तहत, संस्थानों ने समानांतर रूप से यह चाल चली है कि वे नयी भर्तियाँ लगभग नहीं कर रहे हैं। इससे एक पक्ष यह बन गया है कि संस्थानों में कार्यरत् मौजूदा श्रमिकों की औसत आयु `पैंतालीस वर्ष´ हो चली है। हम जानते हैं कि यह ऐसा आयुवर्ग है जब आदमी अपने पारिवारिक दायित्वों में सबसे ज्यादा फँसा और दबा रहता है। उसकी जवानी खतम हो चुकी होती है और वह प्रतिभाशाली होते हुए भी किसी नए उपक्रम में जाने लायक ऊर्जस्वित नहीं बचा रहता। उसकी लड़ाकू क्षमता कम होने लगती है और वह इन सब स्थितियों के चलते समझौतावादी हो जाता है। वे इस पूरी पीढ़ी के नष्ट अथवा सेवानिवृत्त हो जाने की प्रतीक्षा में हैं। उनकी बेचैनी इस हद तक है कि वे समयपूर्व सेवानिवृत्ति के पैकेज देने में नहीं हिचक रहे हैं। इस वजह से भी पिछले कुछ वर्षों में श्रमिक विरोधी परिस्थितियों को लागू किया जा सका है और श्रमिकों के खिलाफ कुछ नए प्रस्ताव उनके झोले में हैं। संस्थान ताक में है कि जैसे-तैसे यह पीढ़ी विदा हो जाए तो नयी भर्तियों को वे अधिक श्रमिक-विरोधी सेवाशर्तों के लाभदायक आलोक में कर सकें। यहाँ आप उचित समझें तो रुककर अपने बच्चों के जीवन और भविष्य के बारे में कुछ तटस्थ तरीके से विचार कर सकते हैं कि क्या आप ऐसा ही संसार उन्हें छोड़कर जाना चाहते हैं।
मालिकों या प्रबंधन से मित्रता एक खतरनाक विचार है
संस्थानों में मालिकों की उपस्थिति अब श्रंखला के रूप में स्थापित कर दी गई है। राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर मार्क्स ने इसे देखा था और कहा था कि आइ.ए.एस. (उच्च प्रशासनिक अधिकारीगण) सरकारों के मुंशी होते हैं, इसके अलावा कुछ नहीं। अन्य संस्थानों में आइएएस का स्थान उच्च प्रबंधक लोग ले लेते हैं। जो भी कार्यपालक की स्थिति में होंगे वे अधिक चतुराई से मुंशीगिरी से भरी क्रूरता कर सकेंगे। उन्हें इस बात के लिए प्रारंभ में तथा बीच-बीच में बाकायदा प्रशिक्षित भी किया जाता है। इस मायने में ये सारे प्रशिक्षण केंद्र श्रमिकों के कातिलों को तैयार करते हैं। जो कार्यपालक होंगे वे मालिक के विश्वसनीय प्रतिनिधि के तौर पर ही काम करेंगे। इसलिए कार्यपालकों एवं अन्य अधिकारी-कर्मचारियों के बीच का संबंध द्वंद्वात्मक और संघर्षपूर्ण ही हो सकता है। रोजमर्रा की मुश्किलों से बचने के लिए उनसे स्थापित मैत्रीपूर्ण संबंध, श्रमिकों की दूरगामी और दीर्घकालिक लड़ाइयों को गहरा नुकसान पहुँचाने में सक्षम है। कार्यपालक तो मैत्रीपूर्ण संबंधों का उपयोग श्रमिक से, कार्यावधि के पश्चात् कार्य लेने में एवं अन्य तरह से शोषण करने में ही करेगा। ट्रेड-यूनियन के मूलभूत सिद्धांतों को याद करें तो याद आएगा कि `मालिक और श्रमिक (बुर्जुआ और सर्वहारा) के बीच असमाधेय वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोधी अस्तित्व का संबंध हैं।´ इसलिए उनसे मित्रतापूर्ण रवैया ट्रेड यूनियन आंदोलन को निस्तेज और निष्प्रभावी करने में समर्थ है। यह कपोल कल्पना नहीं है कि यंत्रीकरण के जरिए सारे पूँजीपति और पूँजीवादी संस्थान अपने यहाँ से एक दिन मनुष्य-कर्मचारियों को हटा देने की आकांक्षा रखते हैं ताकि वे निर्बाध गति से अपनी पूँजी बढ़ा सकें और समाज के सर्वहारावर्ग को कीड़ो-मकोड़ों में बदल सकें। इसलिए यहाँ श्रम-संगठनों के सामने, पूँजीपतियों द्वारा धड़ल्ले से किए जा रहे यंत्रीकरण ने अस्तित्व की ही चुनौती दे डाली है। बिडंवना यह है कि यंत्रीकरण के लिए आवश्यक अपार पूँजी का उत्पादन, श्रमिकगण/कर्मचारीगण कार्यावधि से अधिक काम कर पैदा कर रहे हैं। इसे ही अपनी कब्र आप खोदना कहते हैं।
संस्थानों का लाभ और उनकी बदमाशियाँ
यहाँ उदारवाद और निजीकरण के नारों से भरपूर इस समय में `संस्थानों के लाभ कमाए जाने´ की जरूरत पर भी संक्षिप्त विचार करना प्रासंगिक है। वैश्विक पूँजी और उपभोक्तावादी नजरिए का एकमात्र इरादा है कि कल्याणकारी राज्य या कल्याणकारी समाज की कल्पना को समूल नष्ट कर दिया जाए। श्रमिक की पूरी लड़ाई इस नृशंस विचार के विरोध में होना चाहिए इसलिए `संस्थानों के लाभ´ को उस तरह नहीं देखा जा सकता जिस तरह वे शुद्ध आर्थिक लाभ के रूप में इसकी परिगणना करते हैं। लाभ को उत्पादन की श्रेष्ठता के साथ-साथ, उत्पादकों (श्रमिकों) के `जीवन की गुणवत्ता और श्रेष्ठता´ से जोड़ा जाना चाहिए। यह पूँजीपति और श्रमिक दृष्टि में मूलभूत लेकिन निर्णायक अंतर है। यहीं सारा झगड़ा और झंझट है। दूसरा, यह तय है कि प्रबंधकीय क्षमताओं के साथ, श्रमिकवर्ग की मुश्किलों को दूर करते हुए भी, लाभ कमाया जा सकता है। हो सकता है कि इस तरह से जो लाभ पैदा हो वह मात्र एक करोड़ रुपए सालाना हो लेकिन श्रमिकों का गला काटकर, उन्हें मनुष्य के रूप में विकलांग बनाकर जो लाभ मिलेगा वह एक सौ करोड़ रुपए का हो। इस अतिलाभवादी, पूँजीवादी आकांक्षा और अमानुषिक व्यवस्था का ही तो विरोध होना चाहिए। क्योंकि उनका अतिलाभ श्रमिकों की गलती हुई हडि्डयों और छीजती हुई आत्मा की कीमत पर है। यह पूँजी है जो उन्हें जोंक की तरह चूस रही है और अट्टहास कर रही है। किसी देश या समाज की प्रगति का अर्थ कतई यह नहीं है कि संस्थान, कारखाने, उपक्रम और उनसे जुड़े पूँजीपति उल्लेखनीय लाभ कमाते रहें लेकिन उनमें काम करने वाले श्रमिकों या कर्मचारियों का जीवन गर्त में जाता रहे या वे एक कमतर मनुष्य का जीवन जीने के लिए विवश रहें। मनुष्य और समाज के विकास के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनकी सिर्फ आर्थिक उन्नति ही न हो बल्कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और सृजनात्मक स्तर पर भी सक्रिय, प्रसन्न और विकासमान रहें। और अंत में, यह भी जाहिर बात हैं कि लाभ कमाते संस्थानों, कारखानों और उपक्रमों को पूँजीपति खरीदने या हड़पने के लिए किस तरह कागजों पर हानिप्रद संस्थानों में तबदील करने की महारत रखते हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि जब भी इस तरह के संस्थान बिकते या नष्ट होते हैं तब उनके मालिक, उच्च प्रबंधकगण या पूँजी-स्वामी कभी नहीं उजड़ते। बेरोजगार या नष्ट होते हैं तो सिर्फ उसमें काम करने वाले श्रमिक। यह आरोप बहुत झूठा, बेतुका और फरेब पैदा करने वाला है कि कर्मचारियों या श्रमिकों की बदौलत कोई संस्थान दिवालिया होता है। शोचनीय स्थिति है कि इस तरह के आरोपों के पक्ष में, पूँजी के प्रचार माध्यमों ने विश्वसनीय लगने वाला वातावरण बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। प्रबंधन, नियमन की असफलता, भ्रष्ट आचरण, पद और पूँजी के दुरुपयोग ही निगमों-संस्थानों के घाटे में जाने के उत्तरदायी कारण होते हैं। इन चीजों को दुरुस्त करने के बजाय श्रमिकों से कार्यावधि से अधिक काम लेने की रणनीति मनुष्यविरोधी है और प्रखर प्रतिरोध की आवश्यकता को रेखांकित करती है। ध्यान रहे कि यह प्रतिरोध कार्यरत् श्रमिक ही कर सकते हैं। श्रम-संगठनों की महती भूमिका इस बारे में निर्णायक होगी। अभी तो कार्य के घंटे कानून द्वारा भी रक्षित हैं। इस अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा यदि श्रमिक नहीं कर पा रहे हैं तो इसकी जबावदारी श्रम-संगठनों पर जाएगी।
जहाँ श्रम संगठन नहीं हैं अथवा अप्रासंगिक हैं वहाँ उनके गठन और सक्रियता की आवश्यकता भी इसी विमर्श से पैदा होती है। क्योंकि इस पूरी श्रमिक विरोधी पूँजीवादी समाज की स्थितियों को केवल श्रम संगठनों के निर्माण और उनकी सक्रियता के बल पर ही बेहतर किया जा सकता है, कुछ अनुकूलित किया जाकर बदला जा सकता है।
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4 टिप्पणियां:
निश्चित ही एक अच्छा और सारगर्भित आलेख है। बहुत कुछ सोचने और विचार करने की गुंजाइश देता है। एक ही पाठ में पूरे संदर्भों कॊ पकड़ना संभव नहीं। फ़िर पढ़ना चाहूंगा ही, आगे की कड़ियां भी।
मै आपके निष्कर्षों से मोटे तौर पर सहमत हूं।
ट्रेड यूनियनों का काम केवल बोनस भत्ते की लडाई से आगे का है।
सवाल यह है कि मशीनों से काम होने से जो समय तथा संसाधन की बचत हुई है वह क्यों सिर्फ़ पूंजीपति के हिस्से में जाये? क्यों ना इसका प्रतिफलन बढी हुई मज़दूरी और घटी कार्यावधि में हो ताकि मनुष्यों को अपनी रचनात्मकता के सकारात्मक प्रयोगों को विस्तार देने का मौला मिल सके।
आप ने विषय पर सांगोपांग विचार किया है। यही प्रश्न कल प्रशांत प्रियदर्शी जी की पोस्ट पर था। आशा है उन्हें उन का उत्तर यहाँ मिल गया होगा।
bahut achchaa lekh hai, mujhe khud apane behaviour par sochane ko majboor kartaa hai.
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