शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

दुखद प्रतीक्षा

पाब्‍लो नेरूदा की कविता 'द अनहैप्‍पी वन' का अनुवाद।
अनुवाद अंतत: एक पुनर्रचना ही है।

दुखद प्रतीक्षा
पाब्लो नेरूदा

मैं उसे बीच दरवाजे पर प्रतीक्षा करते हुए छोड़कर
चला गया, दूर, बहुत दूर

वह नहीं जानती थी कि मैं वापस नहीं आऊंगा

एक कुत्ता गुजरा, एक साध्वी गुजरी
एक सप्ताह और एक साल गुजर गया

बारिश ने मेरे पाँवों के निशान धो दिए
और गली में घास उग आई
और एक के बाद एक पत्थरों की तरह,
बेडौल पत्थरों की तरह बरस उसके सिर पर गिरते रहे

फिर खून के ज्वालामुखी की तरह
युद्ध शुरू हो गया
खत्म हो गए बच्चे और मकान

लेकिन वह स्त्री नहीं मर सकी

पूरे देश में आग फैल गई
सौम्य, पीतवदन ईश्‍वर
जो हजारों सालों से ध्यानस्थ थे
टुकड़े-टुकड़े कर मंदिर से फेंक दिए गए
वे और अधिक ध्यानस्थ न रह सके

प्यारे मकान, वह बरामदा
जिसमें रस्सी के झूले में सोया मैं
उज्ज्वल पौधे, अनेक हाथों के आकार की पत्तियाँ,
चिमनियाँ, वाद्ययंत्र
सब ध्वस्त कर दिए गए और जला दिए गए

जहाँ पूरा एक शहर था
अब वहाँ एक अधजला खण्डहर रह गया था
ऐंठे हुए सरिये, प्रतिमाओं के मृत बेढंगे सिर
और सूखे खून का काला धब्बा

और वह एक स्त्री जो अब भी प्रतीक्षा करती है।
00000

15 टिप्‍पणियां:

36solutions ने कहा…

ध्यानस्थ देव के बस मे नही यह, प्रवाहमान मानवता ही एसी हजारो स्त्रियों के प्रतिक्षारत नयनो को विश्राम देंगे.

डॉ .अनुराग ने कहा…

अद्भुत !!

Ashok Kumar pandey ने कहा…

यह कविता अपनी व्यंजना में देर तक व्यग्र करती है और फिर उदास। इंतज़ार करती उस औरत के इंतज़ार के बीच जो इतने सारे वाकये आते हैं वे इस कविता को महाकाव्यात्मक विस्तार देते हैं।

अनुवाद वाकई पुनर्रचना है…इस कविता को पढ़ते हुए एहसास ही नहीं हुआ कि यह किसी और देश-काल में लिखी गयी है।

Amitraghat ने कहा…

"कई रोज़ हो गये मुझे निराश और दुःखी हुए पर इस अनुवाद में प्रयुक्त शब्दों ने सोचने को मजबूर कर दिया है........"
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com

शरद कोकास ने कहा…

कुमार भाई , बहुत अच्छी लगी यह कविता ।यह केवल उस स्त्री की प्रतीक्षा पर नहीं है बल्कि समय के वीभत्सता को भी प्रकट करती है ।

प्रदीप कांत ने कहा…

अद्भुत !!

Chandan Kumar Jha ने कहा…

प्रभावित करती है यह रचना !!!! सुन्दर !

BrijmohanShrivastava ने कहा…

एक बहुत अच्छी रचना

कृष्णशंकर सोनाने ने कहा…

प्रिय अम्बुजजी
दुखद प्रतीक्षा,लम्बे समय तक मेरे हृदय को मथती रही । यह सोचकर कि प्रतिमाओं का अस्तित्व चाहे कुछ भी हो किन्तु मनुष्य प्रतिमाओं की तरह नहीं है । वह पत्थरों को भी पसीजने के लिए विवश करने में समक्ष है । क्या वह प्रतीक्षा पूरी होगी ।
कृष्णशंकर सोनाने
visit:-
http//www.krishnshanker.blogspot.com

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

aapka blog achcha laga. kavitayen to pahle hi padh chuka hun.

kavi surendra dube ने कहा…

फिर हाथ खान आई
जिसमें थे मिले हम -तुम
उस ख्वाब की परछाई

kavi surendra dube ने कहा…

फिर हाथ खान आई
जिसमें थे मिले हम -तुम
उस ख्वाब की परछाई

प्रदीप जिलवाने ने कहा…

नेरूदा मेरे भी प्रिय कवि हैं..... और आप भी...

Rohit Singh ने कहा…

वाह अम्बुज जी..क्या चित्रण किया होगा पाब्लो ने .और उतना ही सशक्त आपने अनुवाद..जंग का विध्वंस जाने कितनो के इंतजार के लम्हों को अनंतकाल तक बढ़ा देता है..

विवेक. ने कहा…

बहुत खूबसूरत कविता चुनी है अंबुज जी... नेरूदा के तो क्या कहने... अनुवाद की सहजता प्रभावी है.