शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

कवि की अकड़

कवि की अकड़
(अपनी राह चले कुछ प्रिय कवियों के बारे में सोचते हुए) 
यों तो हर काल में ही 
कवियों को जिंदा मारने की परंपरा है
हाथी तक से कुचलवाने की निर्दयता है
और समकाल में तो यह कहकर भी कि क्या पता वह जिंदा है भी या नहीं
खबर नहीं मिली कई महीनों से और मोबाइल भी है ‘नॉट रीचेबल’
किसी कार्यक्रम में वह दिखता नहीं और दिख जाए तो 
अचानक बीच में से ही हो जाता है गायब
जब वह खुद ही रहना चाहता है मरा हुआ
तो कोई दूसरा उसे कैसे रख सकता है जीवित

और वह है कि हर विषय पर लिखता है कविता
हर चीज को बदल देना चाहता है प्रतिरोध में 
और कहता है यही हमारे समय का सच्चा विलाप है
वह विलाप को कहता है यथार्थ और इस अकड़ में रहता है
वह इतिहास लिखता है, भविष्य लिखता है और उसे ही कहता है वर्तमान
वह लिंक रोड पर भी फुटपाथ पर नहीं चलता 
और हाशिए पर भी चलता है तो ऐसे जैसे चल रहा हो केंद्र में
कि हम आईएएस या एसपी या गुण्डे की 
और पार्टी जिलाध्यक्ष और रिपोर्टर की अकड़ सहन करते ही आए हैं
लेकिन एक कवि की अकड़ की आदत रही नहीं
और फिर ऐसी भी क्या मजबूरी कि उसे करें बर्दाश्त
क्या मिलेगा या उससे क्या होगा बिगाड़
हम तो जाएँगे वहाँ जहाँ अकड़ न हो 
          फिर भले कविता भी न हो

और वह कभी कविता लिखता है कभी कहानी कभी उपन्यास
फिर अचानक लिखने लगता है कोई स्क्रिप्ट या डायरीनुमा कुछ
और फिर जुट जाता है पेंटिंग में, कभी पाया जाता है संगीत सभा में
और न जाने कहाँ से क्या कमाता है जबकि करता कुछ नहीं
किसी से माँगता नहीं 
इसी से संदिग्ध है वह और उसका रोजगार 
संदिग्ध नहीं है सेबी और शेयर बाजार 
संदिग्ध नहीं बिल्डर, विधायक और ठेकेदार 
संदिग्ध नहीं मालिक, संपादक और पत्रकार
संदिग्ध नहीं आलोचक, निर्णायक और पुरस्‍कार
संदिग्ध नहीं कार्पोरेट, प्रमुख सचिव और सरकार
संदिग्ध है बस कवि की ठसक और उसका कविता-संसार

जबकि एक वही तो है जो इस वक्त में भी अकड़ रहा है
जब चुम्मियों की तरह दिए जा रहे हैं पुरस्कार
जैसे देती हैं अकादेमियाँ और पिताओं के स्मृति-न्यास नाना-प्रकार
जैसे देते हैं वे लोग जिनका कविता से न कोई लेना-देना न कोई प्यार
तो फड़फड़ाते, उड़ते-फिरते या गायब होते 
              कविता लिखे पीले जर्जर पन्नों का नहीं है कोई नियम
और गायब होते जाते कवियों का भी नहीं कोई नियम
लेकिन वही है जो कहता है कि आपके देने के हैं कुछ नियम 
                            तो जनाब, मेरे लेने के भी हैं कुछ नियम 

वह ऐसे वक्त में अकड़ में रहता है जब चाहते हैं सब 
कि कवि चुपचाप लिखे कविता और रिरियाये
जहाँ बुलाया जाये वहाँ तपाक से पहुँच जाये
न किराया माँगे, न भत्ता, न रॉयल्टी, न सवाल उठाये
बस सौ-डेढ़ सौ एमएल में दोहरा हो जाये
वह दुनिया भर से करे सवाल
लेकिन अपनी बिरादरी में उसकी ताकत कम हो जाये

आखिर में कहना चाहता हूँ कि यदि उसकी कविता में
हम सबकी कविता मिलाने से कुछ बेहतरी हो तो मिला दी जाये
यदि बदतरी होती हो तो हम सबकी कविता मिटा दी जाये
लेकिन एक कवि की अकड़ को, उसकी ठसक को रहने दिया जाये
कि वही तो है जो बिलकुल ठीक अकड़ता है
कि वही तो है जिसके पास कोई अध्यादेश लाने की ताकत नहीं 
कोई वर्दी या कुर्सी नहीं और मौके-बेमौके के लिए लाठी तक नहीं
फिर भी एक वही तो है जो बता रहा है 
              कि अकड़ना चाहिए कवियों को भी

इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि वह 
कविता की बची-खुची अकड़ है
जीवन पर निर्बल की सच्ची पकड़ है।
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                                                                                               जनसत्‍ता में 20 अक्‍तूबर 2013 को प्रकाशित

3 टिप्‍पणियां:

शशिभूषण ने कहा…

Bahut achhi kavita.ant ke dono paire kavita ko badi sundarta se poorn karte hain.

Amrita Tanmay ने कहा…

अच्छा लगा आपको पढ़कर ..

अजेय ने कहा…

अच्छी कविता. कोई तो बात है , सब से अच्छी कविता इन दिनों कवियों और कविताओं पर लिखी जा रही है.