यह आलेख, दखल प्रकाशन द्वारा अगले सप्ताह में प्रकाश्य विचार-पुस्तिका 'क्षीण संभावना की कौंध' में संकलित है। आज के दिन इसे शेयर करना प्रासंगिक होगा।
खबरें आती ही रहती हैं कि प्रेमी युगलों को पार्कों से, धार्मिक परिसरों से, प्राकृतिक
जगहों से और कई बार तो रेस्टॉरेन्ट जैसी जगहों से खदेड़ा जाता है। उनसे अपमान
की हदों तक जाकर व्यवहार किया जाता है। तात्कालिक किस्म की सजाएँ दी जाती
हैं। इस तरह का व्यवहार करनेवाले स्वयं को संस्कृति का पहरेदार कहते हैं।
यहाँ कुछ बिंदु विचारणीय हैं। जैसे यह कि, आप प्रेम और प्रेमियों को किस
दृष्टि से देखते हैं। समाजशास्त्र, इतिहास एवं मनोविज्ञान का जरा सा भी अध्ययन
स्पष्ट कर देगा कि स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम एक सहज मानवीय घटना है। समाज में
इसकी जगह होना ही चाहिए। संदेह है कि संसार में ऐसे अभागे लोग भी हों जिनके
मन में कभी प्रेम का बीज प्रस्फुटित न हुआ हो। उस प्रेम का गौरव या उसकी कसक
हर व्यक्ति के साथ जीवन भर चलती है। व्यक्तिगत बातचीत में सभी लोग अपने
सफल-असफल प्रेम-प्रसंगों को स्वीकार करते ही हैं, किस्से सुनाते हैं, आहें भरते हैं
और उसे एक तरह की प्रेरणा और मधुर स्मृति का हिस्सा मानते हैं।
जगहों से और कई बार तो रेस्टॉरेन्ट जैसी जगहों से खदेड़ा जाता है। उनसे अपमान
की हदों तक जाकर व्यवहार किया जाता है। तात्कालिक किस्म की सजाएँ दी जाती
हैं। इस तरह का व्यवहार करनेवाले स्वयं को संस्कृति का पहरेदार कहते हैं।
यहाँ कुछ बिंदु विचारणीय हैं। जैसे यह कि, आप प्रेम और प्रेमियों को किस
दृष्टि से देखते हैं। समाजशास्त्र, इतिहास एवं मनोविज्ञान का जरा सा भी अध्ययन
स्पष्ट कर देगा कि स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम एक सहज मानवीय घटना है। समाज में
इसकी जगह होना ही चाहिए। संदेह है कि संसार में ऐसे अभागे लोग भी हों जिनके
मन में कभी प्रेम का बीज प्रस्फुटित न हुआ हो। उस प्रेम का गौरव या उसकी कसक
हर व्यक्ति के साथ जीवन भर चलती है। व्यक्तिगत बातचीत में सभी लोग अपने
सफल-असफल प्रेम-प्रसंगों को स्वीकार करते ही हैं, किस्से सुनाते हैं, आहें भरते हैं
और उसे एक तरह की प्रेरणा और मधुर स्मृति का हिस्सा मानते हैं।
फिल्में, लोकगीत और साहित्य का उल्लेखनीय हिस्सा प्रेम-प्रसंगों से पटा पड़ा
है। उनकी लोकप्रियता में यह तथ्य निहित है कि वे हमारी अव्यक्त या प्रकट या
दमित भावनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। यहाँ तक कि धार्मिक साहित्य में भी
स्त्री-पुरुष प्रेम की उदात्त, आत्मिक और दैहिक अभिव्यक्तियाँ उपलब्ध हैं। उन्हें
कितनी ही अलौकिकता या आध्यात्मिकता प्रदान कर दी जाये किंतु वे हैं तो
अपने-अपने समय के स्त्री-पुरुष प्रेम संबंध ही। इसके अलावा हीर-राँझा,
रूपमती-बाजबहादुर, शीरी-फरहाद, शाहजहाँ-मुमताज, सोहिनी-महिवाल जैसे किस्सों
का महिमामंडन भी प्रचलित है। यह सब भारतीय समाज की ही बात हो रही है
जिसमें रामचंद्र जी, सीता से सबसे पहले एक वाटिका में ही मिलते हैं, कृष्ण से राधा
का प्रेम तो गृहस्थजीवन में प्रवेश के उपरांत का है और वे इसके लिये उपवनों में,
कुंजों में, गलियों के कोनों-किनारों में ही मिलते थे, पार्वती ने शिव के लिए तपस्या
की, मीरा ने लोकलाज तक की परवाह नहीं की। इन प्रसंगों का सकारात्मक,
उल्लेखनीय पक्ष यह है कि हमारे समाज में इन्हें आदरणीय मान्यता प्राप्त है। लेकिन
आज इसी समाज का एक हिस्सा संस्कृति की दुहाई देता हुआ, प्रेमियों के प्रति
अमानवीय, हिंसक व्यवहार पर उतर आता है तो यह चिंतनीय है।
यह दोहराने में कोई हर्ज नहीं कि हमारा यह पूरा संसार प्रेम की ही पैदाईश
है। जब तक कोई किसी के साथ प्रेम के नाम पर जबर्दस्ती न कर रहा हो, किसी
को बरगला न रहा हो, धोखा न दे रहा हो, तब तक किसी तीसरे को हक नहीं कि
किन्हीं दो के प्रेम के बीच में वह व्यवधान डाले। सार्वजनिक स्थानों पर भी जब तक
कोई युगल ऐसी आपत्तिजनक स्थिति में संलग्न न हो जिससे किसी दूसरे की
गरिमा, सम्मान या स्वतंत्रता बाधित होती हो, तब तक किसी को भी उनके बीच
खलल डालने का अधिकार नहीं है। जो नैतिकता का प्रश्न उठाते हैं उन्हें समझना
चाहिए कि प्रेम अपने आप में एक नैतिक कार्य है। इसे किसी अनैतिकता के दायरे
में परिभाषित करने की कोशिश एक पिछड़े, विचारहीन, असभ्य समाज का परिचय
है। प्रेम करना एक मानवाधिकार भी है। यह अधिकार केवल तब सीमित होता है
जब इस वजह से किसी अन्य के अधिकार का हनन हो रहा हो।
लेकिन हम देख रहे हैं कि प्रेमी-युगलों के साथ अपराधियों की तरह व्यवहार
किया जा रहा है। पुलिस उन पर डंडे बरसाने में संकोच नहीं करती और संस्कृति
के तथाकथित रक्षक उन्हें मारने-पीटने में गौरवान्वित अनुभव करते हैं। माता-पिता
को बुलाकर या थाने में बैठाकर उन्हें लज्जित किया जाता है। जबकि वास्तविक
अपराधी वे हैं जो इन प्रेमियों या संभव हों कि वे आपस में महज मित्र ही हों, से
दोषियों की तरह पेश आते हैं। स्त्री-पुरुष को साथ में देखते ही जिन्हें केवल
प्रेमी-प्रेमिका होने का बोध होता है, ऐसे लोगों की मानसिकता ही दूषित है। वेलेंटाईन
डे पर देखा गया है कि धर्म के नाम पर बनाये गये संगठनों द्वारा भाई-बहिनों को
या आपस में रिश्तेदारों, परिचित पड़ोसियों या मित्र स्त्री-पुरुषों को प्रताडि़त कर दिया
जाता है। राजनैतिक कारणों से इनके पक्ष में कानून-व्यवस्था भी नहीं है। यही
फासीवादी लक्षण हैं। खाप पंचायतें जैसे दृश्य तो अमानवीयता की पराकष्ठा हैं।
जब हमने समाज में सहशिक्षा को स्वीकार कर लिया है, कार्यस्थलों पर
स्त्री-पुरुष काम करते हैं, हर क्षेत्र में स्त्री-पुरुषों के मिलने-जुलने के अवसर हैं, तब
यह स्वाभाविक है कि उनके बीच मित्रता के, प्रेम के या व्यक्तिगत पसंद-नापसंद
के संबंध भी बनेंगे। जितनी सहजता से हमें पुरुष और पुरुष की मित्रता स्वीकार्य
है, उसी सहजता से पुरुष-स्त्री के मित्रता और प्रेमपूर्ण संबंध को भी स्वीकार करना
चाहिये। सबसे बड़ी बात है कि स्त्री-पुरुष के स्वस्थ, मैत्रीपूर्ण, सहयोगी संबंधों को
कहीं हम ही तो गलत निगाह से नहीं देखते। कहीं हमारे भीतर ही तो वह अस्वस्थ
दृष्टि नहीं बन गयी जो प्रेमविरोधी है और स्त्री-पुरुष संबंध को पहले से अनैतिक
मान लेती है? लगता है हमारे अपने अंतर्मन में कोई खोट, द्वेष या ग्रंथि है जो हमें
इन संबंधों को सहजता से नहीं लेने देती। अथवा नैतिकता की कोई सँकरी परिभाषा
बना ली गयी है जो पुरातनपंथी संस्कारों के रूप में हमारे मन में जगह जमा चुकी
है।
समस्यामूलक चिंतन यह होना चाहिए कि ये प्रेमी या मित्र यदि आपस में
कुछ निजी बातचीत करना चाहें, कुछ समय बिताना चाहें तो इस बंद और अनुन्नत
समाज में वे आखिर कहाँ जायें। उन्हें हर जगह शक की निगाह से देखा जाता है,
हर जगह उनके लिए बाधाएँ खड़ी की जाती हैं और कह सकते हैं कि अब तो उनका
जीना ही हराम कर दिया गया है। तब उनके पक्ष में, प्रेम की तरफदारी में कुछ बातें
सोचने की जरूरत आन पड़ी है। क्योंकि हम इक्कीसवीं सदी में आ ही गये हैं तो
प्रेम को लेकर भी हमारे विचार आधुनिक होना चाहिए। किसी समाज की प्रगति
देखने का एक पैमाना यह भी है कि उसमें स्त्री-पुरुष मित्रता या उनके संबंधों को
कितनी उदारता या संकीर्णता से देखा जाता है। क्षोभ है कि हमारे देश में प्रेमियों
को निजी एकांत की जगह तक नहीं दी जा रही है। यह हमारे बौद्धिक, सांस्कृतिक
पिछड़ेपन का ही उदाहरण है। जबकि हमें अपनी युवा पीढ़ी पर इतना भरोसा करना
चाहिए कि वे अपने प्रेम संबंधों में भी जवाबदारी का परिचय देगी। यदि इससे उन्हें
कोई निजी लाभ-हानि होती भी है तो यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विषय है।
जब तक हमारे घर-परिवारों में पुत्र-पुत्रियों, स्त्री-पुरुष मित्रों को घरों में ही मिल
सकने की, बातचीत करने की स्वतंत्रता देने की आधुनिक मानसिकता नहीं बनती
है तब तक पहल यह होना चाहिए कि शहरों में ऐसी जगहें विकसित की जायें जहाँ
ये प्रेमी या मित्र, बेखटके मिल-जुल सकें। पुलिस की भूमिका केवल इतनी हो कि
उन्हें कोई अपमानित न करे और उनकी निश्चल शांति को भंग न कर सके। इस
बीच परिवार और समाज में उपस्थित सामंती मानसिकता से भी लड़ाई जारी रहना
चाहिए, यही हमारी संस्कृति की सच्ची परंपरा है और यही आधुनिकता की उदात्त
मानवीय धारा भी।
4 टिप्पणियां:
बहुत बढि़या आलेख... अपने पसंदीदा एवं अग्रेज कवि से अपेक्षित...।
बहुत बढि़या आलेख... अपने पसंदीदा एवं अग्रेज कवि से अपेक्षित...।
बहुत बढि़या आलेख... अपने पसंदीदा एवं अग्रेज कवि से अपेक्षित...।
दुखद पहलू तो यही है कि जन्हें सुरक्षा देनी चाहिए वे ही अपमानित करते हैं।
एक टिप्पणी भेजें