'श्रम के घंटे और मनुष्य का अवकाश' शीर्षक से यह निबंध करीब चार साल पहले 'कथन' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था और इसके कुछ अंश भी इधर-उधर आये थे। पिछली पोस्टों में दिए गए धर्म विषयक आलेख को जिस उत्साह और रुचि से पढ़ा गया, उससे मुझे आशा है कि इस निबंधात्मक आलेख को भी उत्सुकता और विश्लेषणपरकता के साथ देखा-पढ़ा जायेगा।
आर्थिक मंदी के इस सच्चे-झूठे दौर के उतार पर, जबकि श्रम कानूनों को नष्ट करने की प्रक्रिया तेज है और प्रतिभाओं को असीमित कार्यघंटों तक काम करने को विवश किया जा रहा है, नौकरियां असुरक्षित है, सामाजिक सुरक्षा के तत्व यथा पेंशन तथा वेलफेयर की योजनाएं सेवाशर्तों से गायाब हैं, तब शायद यह सब पुनर्विचार और प्रासंगिकता के लिहाज से प्रबुद्ध साथियों को भी आकर्षित कर सकेगा।
अपने आकार के कारण इसे चार-पांच किश्तों में ही दिया जाना संभव होगा।
यह पहली किश्त।
श्रम के घंटे और मनुष्य का अवकाश
दास प्रथा का स्मरण करें तो आज सभ्य, विकसित और विचारशील दृष्टि से उसकी तीन ऐसे प्रमुख बिंदु सहज ही सामने आते हैं जिनकी वजह से इस प्रथा को अमानवीय और कलंकित माना गया और इसके खिलाफ जबर्दस्त संघर्ष किया गया - 1. इसमें मनुष्य द्वारा ही मनुष्य का शोषण किया जाता था, मनुष्य के अधिकारों की तो बात छोड़िए, दासों को मनुष्य का दर्जा ही प्राप्त नहीं था। 2. उनसे काम लेते समय उनके कार्य के घंटों का अथवा न्यूनतम सुविधा का विचार नहीं किया जाता था। 3. उन्हें उपयोगी वस्तु या यंत्र की तरह मान लिया गया था। उनका विनिमय, क्रय, विक्रय किया जा सकता था, उन्हें उपहार में भी दिया जा सकता था। इन बिंदुओं को हम ध्यान में भर रख लें ताकि आगामी कथ्य और चर्चा में इनका स्मरण ओझल न हो।
प्रूंदों, हीगेल, रूसो, जैसे अनेक विचारकों ने मनुष्य की स्वतंत्रता, समता और न्याय के पक्ष में जो विमर्श किया उसे मार्क्स ने नयी ऊँचाई पर पहुँचाया। इस विमर्श का निकष यही है कि संसार में जितनी भी असमानता और शोषण है उसके आधार में पूँजी का खेल है। रूढ़ियाँ, धर्म और अंधविश्वास (अवैज्ञानिक दृष्टिकोण) इस शोषण और असमानता की न केवल रक्षा करते हैं बल्कि पूँजीपति के औजार की तरह काम आते हैं। पूँजी के बारे में बात करते हुए दो मुख्य बातें यहाँ विचारणीय होंगी- 1. पूँजी अपने आपमें कोई कीमत नहीं रखती, वह तो जड़ है, यह श्रम है जो उसे गति प्रदान करता है और इस तरह उसे मूल्य (लाभ) में बदलता है। 2. पूँजी का मालिक (पूँजीपति), अतिलाभ (overprofit) चाहता है और इसके लिए वह किसी भी तरह के हथकंडे अपना सकता है। इन बिंदुओं को भी ध्यान में रखा जाए।
थोड़े-से अधिक काम का मतलब करोड़ों रुपए
याद कीजिए बेशी मूल्य (surplus value) का सिद्धांत, जिसे आज तमाम कारखानों, वित्तीय संस्थानों और उत्पादक निगमों के संदर्भ में लगभग भुला दिया गया है। मार्क्स के सर्वोपरि प्रतिपादनों में से यह महत्वपूर्ण है। बेशी मूल्य का आधार है कि मालिकों या संस्थान द्वारा श्रमिकों से, पूँजी के बदले में आवश्यक उत्पादन मूल्य और श्रमिक के जीवनयापन के लिए आवश्यक राशि से अधिक कार्य कराते हुए अपने लाभ को कई गुना बढ़ाना। साथ ही, निश्चित कार्यघंटों से कुछ अतिरिक्त इस तरह काम लेना कि उसका पारिश्रमिक या वेतन न देना पड़े। इस तरह का `अदत्त वेतन´ ही वह बेशी मूल्य है जो संस्थान को सीधे लाभ के रूप में मिलता चला जाता है। पढ़ने-जानने में यह छोटी-सी बात लगती है लेकिन इसकी `भयंकर लाभप्रदता´ को एक छोटे उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है। मान लीजिए किसी मध्यम श्रेणी के राष्ट्रीयकृत संस्थान में 10,000 अधिकारी-कर्मचारी कार्यरत् हैं। ये सभी अपने तयशुदा कार्यसमय से, औसतन डेढ़ घंटे अधिक काम करते हैं। माह में 25 कार्यदिवस के हिसाब से ये लोग संस्थान के लिए कुल 3,75,000 घंटे अधिक काम करेंगे जो संस्थान के लिए मुत होगा। यह उतना काम होगा जितना कि 2,142 लोग पूरी तनख्वाह पर 7 घंटे प्रतिदिन के श्रम से एक माह में करते। अब यदि एक अधिकारी-कर्मचारी की औसत तनख्वाह और भत्ते पंद्रह हजार रूपए प्रतिमाह भी मानें जाए तो उस संस्थान को एक माह में रुपए 3,21,30,000 और वर्ष में 38,55,60,000 (मात्र अड़तीस करोड़ पचपन लाख साठ हजार रुपए) का लाभ बेशी श्रम के कारण हुआ। (यदि औसत वेतन दस हजार रुपए माना जाए तो यह लाभ लगभग 26 करोड़ रुपए बैठेगा।) जब तक गणना न की जाए, यह राशि किसी अनुमान में भी नहीं आती।
हमारे एक मित्र कहते हैं कि सार्वजनिक एवं अन्य निकायों में, उन लोगों से होने वाला घाटा भी गणना में लिया जाना चाहिए जो कुछ कर्मचारियों द्वारा प्रतिदिन औसतन दो घंटे कम काम करने से पैदा होता है। चलिए, उसकी गणना करते हैं। लेकिन रुकिए, पहले हम यह देख लें कि ऐसे अधिकारी-कर्मचारी किस तरह के हो सकते हैं जो संस्थान में औसतन दो घंटे कम काम करते हुए भी नौकरी में बने रह पाते हैं। ट्रेड यूनियन से जुड़े सक्रिय साथी, उच्च प्रबंधन के चाटुकार या संबंधी, खिलाड़ी, संगीत-साहित्य-कला या सांस्कृतिक गतिविधियों में दखल रखने वाले और अन्य प्रकार से सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में प्रभामंडलीय कुछ लोग। इन सबकी संख्या औसतन दस प्रतिशत होती है। उपर्युक्त गणना से यह राशि लगभग पाँच करोड़ रुपए निकलती है। लेकिन अन्य कोण से देखें तो इस राशि को सीधे `बेशी मूल्य से प्राप्त मुफ्त के लाभ´ में से नहीं घटाया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे तमाम अधिकारी-कर्मचारी जो ट्रेड यूनियन, प्रबंधन, खेल या कलाओं से जुड़े हैं वे संस्थान के लिए अनेक दूसरी तरह से उपयोगी होते हैं। औद्योगिक संबंधों में, ग्राहक जुटाने में, सामाजिक-राजनीतिक प्रकृति की मुश्किलों में सहायक होने में और संस्थान के लिए गुडविल एकत्र करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनमें से अधिकांश तो संस्थान के अघोषित छोटे-बड़े ब्रांडनेम और शहर-समाज में प्रमुख चेहरों की तरह काम करते हैं। इन भूमिकाओं और कार्यों को यदि आर्थिक गणित में तबदील किया जाए तो वे पाँच की जगह दस करोड़ रुपए वार्षिक की अमूर्त (intengable) कमाई और अतिरिक्त भरपाई कर देते हैं। लेकिन संस्थान इनकी गिनती नहीं करना चाहता। धन को सब कुछ समझनेवालों की संतुष्टि के लिए यदि हम यह राशि कम भी कर दें तब भी, इस उदाहरण में, यह संस्थान 33.6 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष `बेशी मूल्य´ के रूप में कमा लेगा। दूसरे शब्दों में, यहाँ उदाहरण बनाए गए संस्थान ने अपने अधिकारी-कर्मचारियों से एक साल में लगभग 34 करोड़ रुपए का काम बिना एक पैसा दिए करा लिया और यह उसका शुद्ध लाभ है। यह चौंकाने वाली राशि है लेकिन सच है। इसे बहुत छोटे कार्यालय के हिसाब से भी देखें तो एक कार्यालय जहाँ कुल 70 लोग कार्यरत हों तो उपरोक्त गणना के अनुसार, वे प्रतिदिन अदत्त वेतन पर डेढ़ घंटे ज्यादा काम करते हुए रुपए 27,00,000/- (केवल सत्ताईस लाख रुपए) बेशी मूल्य के रूप में संस्थान को बैठे-बिठाए वार्षिक कमाई पहुँचा देंगे।
व्यक्ति और कर्मचारी को प्राय: इसकी गणना और अनुमान नहीं होता है। लेकिन तमाम वाणिज्ियक संस्थान इस बेशी मूल्य का महत्व जानते हैं और अपने कर्मचारियों से `बस, थोड़ा-सा अधिक काम´ लेने के लिए जमीन-आसमान एक किए रहते हैं। इस हेतु वे प्रशिक्षण-कार्यक्रमों के दौरान, सेमिनारों में, छोटी-बड़ी बैठकों में आवश्यक प्रेरणा प्रदान करते हैं। संस्थान की ओर से `मोटो वाक्य´ प्रसारित करते हैं। इस `अधिक काम को लेने के लिए´ नैतिक जामा पहनाने की कोशिश करते हैं और भावनात्मक तरीकों का इस्तेमाल भी करते हैं। अन्य सांस्थानिक या कार्यालयीन तरीकों का उपयोग तो बेहिचक होता ही है अर्थात् नौकरी की बाध्यता, दबाव की रणनीतियाँ और आधिकारिक रौब। अब तो सीमा-शक्ति से अधिक कार्य करने के लिए `कार्पोरेट मेसैज´ का आविष्कार भी कर लिया गया है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद के चलते `नौकरी की सुनिश्चिता´ बनाए रखने का लोभ बनाम धमकी भी इसमें शामिल हो गई है। संक्षेप में, ये सिर्फ `बेशी मूल्य´ को प्राप्त करने के सांस्थानिक हथकंडे हैं। इसलिए निश्चित कार्यघंटों से अधिक काम लेने के लिए हर तरह की बेरहमी से पेश आने के उदाहरण और औद्योगिक-निर्ममताएँ आज हमारे सामने हैं। यदि संस्थानों को `नियमानुसार कार्य´ (work to rule) का नारा घबराहट से भर देता है तो उसके पीछे बड़ा कारण यही है कि इससे `अदत्त पारिश्रमिक´ की आय पर एकदम रोक लग जाती है और मालिकों या संस्थान की प्रबंधकीय अक्षमताएँ उजागर होने लगती हैं। अब हम यहाँ प्रारंभ में विचार किए गए बिंदु को ध्यान में ला सकते हैं कि हर पूँजीवादी तरीके का लक्ष्य होता है कि अतिलाभ। अतिलाभ की यह आकांक्षा ही उसे लगातार अमानवीय, क्रूर, शोषक और धनपशु बनाती चली जाती है और फिर इन्हीं प्रवृत्तियों के आधार पर नियमों और कानूनों का निर्माण कराने के लिए भी प्रेरित करती है। हाल ही में भारत में हुए श्रम कानूनों में संशोधन किए जाने का कारण है कि पूँजीपतियों का राजनीति में वर्चस्व हुआ और श्रमिक पक्षधरता की राजनीति की आवाज कम हुई।
श्रमिक सबसे पहले एक मनुष्य है
पिछली ही शताब्दी में श्रमिकों ने कार्य के घंटे सुनिश्चित और समुचित करने के लिए जितने आंदोलन किए और तमाम न्यायविदों, विद्वानों, दार्शनिकों, आंदोलनकारी प्रतिभाओं, राजनीतिज्ञों, समाजवेत्ताओं और विचारकों ने इन आंदोलनों का समर्थन किया तो उसका सबसे बड़ा आधार था कि श्रमिक को एक मनुष्य के रूप में अवकाश मिलना चाहिए। मनुष्य को मिलने वाला अवकाश। यह अवकाश उसे न केवल जीवन के लिए स्वतंत्रता देगा बल्कि मनुष्य के रूप में विकसित होने के लिए आवश्यक समय और उत्साह भी देगा। ताकि वह अपनी सामाजिकता, कलाभिरुचियों और परिवार के लिए समुचित समय निकाल सके। यह अवकाश हर मनुष्य के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि भोजन या प्राणवायु। इस अवकाश के बिना वह दास या बँधुआ होता चला जाएगा। वह शोषण और यांत्रिकता का शिकार भी होगा। इस अवकाश का अभाव उसे सबसे पहले मन से रुग्ण करेगा और फिर उसका शरीर भी इस बलिदान में शामिल होता जाएगा। इस अवकाश का अभाव उसे मानसिक, शारीरिक और सामाजिक तौर पर नष्ट करने में सक्षम है। पहली बड़ी सफलता के रूप में जब यूरोप में श्रमिकों के लिए 10 घंटे का कार्य तय माना गया तब उसका जश्न इसलिए मनाया गया था कि इस सिद्धांत को विजय मिली कि कार्य के घंटे कम और सुनिश्चित होने चाहिए। लेकिन ये घंटे भी अधिक थे इसलिए लंबे संघर्षों के बाद छ: से सात घंटों के बीच आकर इसका समाधान हुआ। जहाँ पालियों में काम होता है वहाँ, कुछ अधिक सुविधाओं के साथ आठ घंटों तक का समझौता हुआ। अब जबकि अघोषित तौर पर, भारी प्रतियोगिता, उदारवाद और पूँजीवाद के नए आक्रमण के जरिए घोषित तौर पर श्रमिकों के कार्यदिवस के घंटे बढ़ाए जा रहे हैं तब इस कुल कवायद की मुश्किलों और प्रेरणाओं को समझना चाहिए।
क्या मनुष्य के अवकाश का सौदा संभव है?
ओव्हरटाईम अथवा अन्य किसी रूप में आर्थिक प्रतिपूर्ति क्या मनुष्य को वह अवकाश लौटा सकती है जो निश्चित कार्यावधि तक काम करने के बाद उसे मिलना चाहिए या जिस पर उसका `बेहद व्यक्तिगत और न्यायपूर्ण´ अधिकार था। कार्य के जो घंटे तय हुए हैं, उसमें यह बात विशेष तौर पर विचार में ली गई है कि औसत स्वस्थ आदमी को कितने घंटे तक अपनी समुचित क्षमता, रुचि और मानसिकता से काम करना चाहिए ताकि उसके पास एक नागरिक और मनुष्य का समय भी शेष रह सके। मान लीजिए कि यह सात घंटे की अवधि है। इसके बाद यदि एक घंटा भी अधिक काम किया जाता है तो वह आपकी क्षमता को तेजी से घटाता है और तन-मन पर काफी दबाव पैदा करता है। जीवन में से औसतन प्रतिदिन दो घंटे कम कर दिए जाने के अतिसामान्य दुष्परिणामों को इस तरह लक्षित किया जा सकता है :
1, अब आपका दिन बाईस घंटों का हो चुका है।
2. औसत कार्य से अधिक कार्य करने से दैनिक जीवन के अन्य सामाजिक, पारिवारिक और अभिरुचि संबंधी कार्यों एवं दायित्वों के प्रति आपकी क्षमता बेहद कम हो जाती है। (प्रतिशत में देखेंगे तो यह क्षमता पचास से लेकर एक सौ प्रतिशत तक घट जाती है। उदाहरणार्थ, सामान्य कार्यघंटों के उपरांत यदि आप इन कार्य-दायित्वों के लिए तीन से चार घंटों का वक्त निकाल सकते हैं, अब इसमें से दो घंटे घटा दिए जाएँ तो आपके पास एक या दो घंटे ही बचेंगे। लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि `दो घंटे अधिक कार्य करने से उत्पन्न मानसिक-शारीरिक थकान´ आपको इस लायक भी नहीं छोड़ती कि बचे हुए एक-दो घंटों का आप कोई वास्तविक उपयोग कर सकें तब आप अपने सामाजिक, पारिवारिक और आनंदप्रद समय की लगभग 100 प्रतिशत हानि का शिकार हो जाते हैं। अथवा दो घंटे का काम एक घंटे में करने का साहसिक प्रयास करते हैं नतीजन तनाव, घबराहट और अन्य मुश्किलें आपको घेरना शुरू कर देती हैं।। बदले में आप टी.वी. देखने, मदिरापान करने, जंक फूड या अधिक भोजन करने और बच्चों के साथ गुस्सैल व्यवहार करने के आदी हो सकते हैं जो आपके सामने पुन: नयी प्रकार की समस्याएँ पैदा करेगा।)
3. इस प्रकार आप मनुष्य के रूप में कमतर होते जाएँगें। मनुष्यत्व खतम करने (dehumanization)की तरफ यह एक परोक्ष लेकिन तयशुदा कदम है।
शेष अगली किश्त में।
जारी
3 टिप्पणियां:
उच्च श्रेणी का आलेख. अगली कड़ी का इंतज़ार है.
अवकाश मनुष्य के लिए बहुत आवश्यक है .. पर आज लालच के युग में इसे नहीं समझा जा सकता .. सुंदर विश्लेषणयुक्त रही यह पहली किश्त .. अन्य किश्तों का भी इंतजार रहेगा !!
कथन में यह लेख नहीं पढ पाया था।
अभी रक जो पढा उसने अगली क़िस्त के लिये इंतज़ार पैदा कर दिया है। अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण इसमें अपनी स्वाभाविक रुचि है… पर प्रतिक्रिया के लिये अगली क़िस्त की प्रतीक्षा करुंगा।
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