बुधवार, 15 सितंबर 2010

रहने की कोशिश कर सकता हूं

लंबे अंतराल के बाद यहां अपनी एक नयी कविता।

धूप में रहना है



जीवन ऐसा है कि धूप में रहना ही पड़ता है
अब मैं तेज धूप में हूं और रहना इस तरह जैसे ओस के संग रह रहा हूं
यह सचमुच मुश्किल है और लोग कहते हैं कि तुम्हें जीवन में रहना नहीं आता
मैं कुछ नहीं कह सकता केवल रहने की कोशिश कर सकता हूं
ज्यादा तरकीबें भी नहीं हैं मेरे पास सिर्फ कोशिश कर सकता हूं बार-बार
हालांकि यह अभिनय जैसा भी कुछ लग सकता है

अगर मैं ओस जैसा हूं
तो मैं चाह कर भी इसमें बहुत तब्दीली कर नहीं सकता
आलस, क्रांति, मेहनत या दुनियादारी की इसमें बहुत भूमिका नहीं
जैसा कि होता है आपके होने और मेरे होने में ही मेरी सीमा हो जाती है
और इससे असीम तकलीफें पैदा होती हैं और अपार प्रसन्नताएं भी

यह जो हताशा है, असहायता है, नाटक है
यह जो ठीक तरह न रह पाने की बदतमीजी, बदमजगी या मजबूरी है
और ये मुश्किलें जो घूरे की तरह इकट्ठा हैं मेरे आसपास
दरअसल यह सब मेरे ओस जैसा होने की मुश्किलें भी हैं
जिस पर किसी का कोई वश नहीं
लेकिन इतना असंभव तो मैं कर ही पा रहा हूं
कि तमतमाती धूप के भीतर रहे चला जा रहा हूं

हर कोई धूप के भीतर ओस को रहते देख नहीं सकता
इस तरह मैं हूं भी और नहीं भी हूं
आप मुझे सुविधा से, मक्कारी से या आसानी से नजरअंदाज कर सकते हैं।
00000

6 टिप्‍पणियां:

alka mishra ने कहा…

न तो हम आपको सुविध से नजरअन्दाज कर पा रहे हैं, न मक्कारी से न ही आसानी से....

कोई और तरीका सुझाइए


सटीक और ठोस रचना

उत्‍तमराव क्षीरसागर ने कहा…

अच्‍छी बात...ठोस ईरादों की तरल सघनता...सुंदरतम पंक्ति-'हर कोई धूप के भीतर ओस को रहते देख नहीं सकता'
---सार्थक प्रस्‍तुति

सुशीला पुरी ने कहा…

ओस की तरह रह पाना ...और वह भी धूप मे ! अद्भुत ! आपके कहन का ढंग बेहद सुंदर है ...

''और ये मुश्किलें जो घूरे की तरह इकट्ठा हैं मेरे आसपास
दरअसल यह सब मेरे ओस जैसा होने की मुश्किलें भी हैं'' .........
कितनी बारीकी से लिख दिया आपने बड़ी -बड़ी बातें !

महेश वर्मा mahesh verma ने कहा…

आपकी पिछली कविताओं से तुलना की जाये तो इसे एक कमज़ोर कविता कहूँगा. काफ़ी गद्यात्मक और निबंधात्मक. लेकिन यह कहने में यह याद रखना ज़रूरी है कि इस बीच आप कहानी के धूल भरे मैदानों पर विचरते रहे. फिर भी कविता के संसार में बार बार आपका लौटना हमेशा बाल देता है. महेश वर्मा, अंबिकापुर छत्तीसगढ़.

सुनील गज्जाणी ने कहा…

हर कोई धूप के भीतर ओस को रहते देख नहीं सकता
इस तरह मैं हूं भी और नहीं भी हूं
आप मुझे सुविधा से, मक्कारी से या आसानी से नजरअंदाज कर सकते हैं।
कुमार साब ,
प्रणाम !
साधुवाद इक समय के बाद आप को पढ़ा ,
सादर !

अमित ने कहा…

पहले अनुनाद पर शिरीष जी कविता "जीवन रहेगा " और फिर ये कविता ....

"जीवन ऐसा है कि धूप में रहना ही पड़ता है
अब मैं तेज धूप में हूं और रहना इस तरह जैसे ओस के संग रह रहा हूं"

बहुत उम्दा !!