इधर कुछ दिनों से येहूदा आमीखाई की यह कविता याद आती रही।
इसका भावानुवाद सह पुनर्लेखन जैसा कुछ किया है।
शायद इसका कुछ प्रासंगिक अर्थ भी निकले।
जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
उस जगह फिर कभी
वसंत में भी फूल नहीं खिलेंगे
जहाँ सिर्फ हम सही होते हैं
वह जगह फिर बाड़े की जमीन की तरह
कठोर और खूँदी हुई हो जाती है
ये संशय और प्रेम ही होते हैं
जो दुनिया को उसी तरह खोदते रहते हैं
जैसे कोई छछूंदर या जुताई के लिए हल
और सुनाई देती है फिर एक फुसफुसाहट उसी जगह से
जहाँ कभी हुआ करता था एक उजड़ा हुआ मकान।
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9 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण कविता को रूपांतरित कर हम तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद और बधाई भी।
कितनी सुंदर और कितनी सही बात है!
jarooree kavita.achchha anuvad.badhai.
bahut achchhee kavita aur utana hee sundar anuvad.badhai
पहली तीन पंक्तियाँ कभी भुलाये नहीं भूलेंगी|....प्रेरक कविता
पहली तीन पंक्तियाँ भुलाये नहीं भूलेंगी| ... प्रेरक कविता...
कोई भी व्यक्ति , घटना , .... पूरी तरह तरह से सही नहीं होता , हो ही नहीं सकता - क्योंकि कहने सुनने समझने और लेने में अपनी सोच भी शामिल होती है
BAHUT SUNDER KAVITA HUM TAK PAHUNCHANE KE LIYE AABHAAR AMBUJ JI....MEENAKSHI JIJIVISHA
प्रेरक .
जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
उस जगह शब्द महज़ शोर हो जाते हैं
और लोग फक़त भीड़ .
और हम
उस का हिस्सा भी नहीं बन पाते
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