गुरुवार, 7 नवंबर 2019

यातना शिविर में


लिखी जा रही लंबी कविता का छोटा-सा अंश
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"अगस्त की एक रात में होती है तेज बारिश
पौ फटने तक बह जाते हैं सारे रास्ते
टूट चुके होते हैं तमाम पुल, बंद हो जाते हैं दर्रे
यह बर्फबारी का मौसम नहीं है मगर बर्फ के नीचे
दब जाते हैं सारे फूल, इच्छाएँ, आशाएँ और घास
सिर्फ यातनाएँ चमकती रहती हैं बर्फ के ऊपर
अब आप लिख सकते हैंः अगस्त सबसे क्रूर महीना है
अगस्त में हुआ था सबसे बड़ा धमाका
अगस्त की तारीखों में से उठता था विकिरण
जिसने घेर लिया था तमाम महीनों को, सभ्यता को
अगस्त में ही मजलूमों का आत्मसमर्पण
अगस्त में ही हुए थे इस देह के दो टुकड़े
हमेशा बचा रहता है बस एक जर्जर, शरणार्थी दिल
जो उठाता रहता है सारी तकलीफें
आप मान लीजिए मैं यातना शिविर में नहीं हूँ
मर ही जाता यदि सचमुच होता किसी यातना शिविर में
मेरी ये उजड़ी तसवीरें तो झूठी हैं, सुबह की स्लेटी धुंध झूठी है
झूठी हैं मुझ पर तनी हुई बंदूकें, झूठी हैं सायरन की ये आवाजें
खून की लकीरें झूठी हैं, झूठे हैं ये घायल जिस्म, ये चीखें झूठी हैं
थर्ड डिग्री की यह खबर झूठ की प्रतिलिपि है, महाझूठी है
घर में भीतर की दीवारों पर गोलियों के ये निशान झूठे हैं
कौन कह सकता है भला मैं यातना शिविर में हूँ
जो कह देगा वह शख्सियत झूठी है
सच्ची है सिर्फ मेरी चुप्पी और सच्चाई मेरी झूठी है
मेरा कुछ भी कहना अब इस कदर बेमतलब है
कि कह दूँ तो मानेगा कौन, न कहूँ तो समझेगा कौन
जबकि कहना बस इतनी सी बात है कि अभी संसार में हूँ
मेरी आवाज पर निगाह है, मेरी हस्तलिपि पर निगाह है,
निगाह है मेरी आँख की पुतली पर, अब कोई निजता नहीं रही
इसलिए इस सामाजिक चौपाल पर यूनिकोड में लिखता हूँ-
महादेश में हूँ, जब तक मुमकिन है जिंदा हूँ, मजे में हूँ
और यहाँ तक आते-आते मान चुके हैं आप भी
कि मैं हूँ मगर किसी यातना शिविर में नहीं हूँ.. ... "

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